खोजने लगते हैं बचपन, तारुण्य, दोस्त, सहेली, साथी और रिश्ते... हमारे अपने रिश्ते...
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सामाजिक तथा पारिवारिक भान कैसे रखना है, यह सारा भाग विद्यार्थी अवस्थासे तारुण्य अवस्थातक मनुष्य सीखता है ।
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इसीलिए विनोबा जी तथा दादा धर्माधिकारी ‘ तारुण्य ' को, जवानी को ऊँचे स्तर की आस्तिकता कहते रहे हैं।
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उसका कारण भी है, तारुण्य में कल्पना की जो प्रखरता रहति है वह प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में नहीं रह जाती।
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किशोर वयीन पीढी से समाज बड़ी उम्मीद लगाये रहता है जो तारुण्य के दहलीज पर दस्तक देने को तत्पर हैं ।
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तीनों (बाल्य, किशोर, तारुण्य) अवस्थाएँ ऐसे ही व्यतीत कर दीं और अब बाल सफेद हो गये बुढापा आ गया।
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जिज्ञासा जो ‘ बाल्यकाल, नवयौवन और तारुण्य के विभिन्न उषःकालों में हृदय का छोर खींचती हुई, आकर्षण के सुदूर ध्रुव-बिंदुओं से हमें जोड़ देती है।
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शीशम के तारुण्य का आलिंगन करती लता रस का अनुरागी भ्रमर कलियों का पूछता पता सिमटी सी खड़ी भला सकुचायी शकुन्तला मानो दुष्यन्त आ गया देखो बसन्त आ गया।
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अब सहा नहीं जाता विकला बावरिया बरसाने वाली-क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥43॥ सुधि करो प्राण! कहते “मृदुले! तारुण्य न फ़िर फ़िर आता है।
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क्या मैं त्याग-तपस्या की भव्यमूर्ति नहीं लगती हूँ? उनके प्रौढ़मुख के तारुण्य के आकर्षण ने अथवा पत्नीत्व के बोध ने उस क्षण मुझ में घनीभूत अधिकार भावना जगा दी।