इस प्रकार तिर्यक् (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं, ॥ 3 ॥
32.
दैव आठ प्रकार का, तिर्यक् पांच प्रकार का तथा मानुष एक प्रकार का है-ये सब मिलाकर प्राणि जगत् के चौदह विभाग हैं ।
33.
त्रिनताक्ष (triclinic) समुदाय में तीनों अक्ष य, र ल असमान लंबाइयों के होते हैं तथा एक दूसरे पर तिर्यक् (oblique) कोण बनाते हुए झुके रहते हैं।
34.
पर यदि भ्रंश न तो नमन दिशा की और और न नमन से लंब दिशा के अनुकूल हो, तो इसे तिरछा य तिर्यक् भ्रंश कहते हैं।
35.
पर यदि भ्रंश न तो नमन दिशा की और और न नमन से लंब दिशा के अनुकूल हो, तो इसे तिरछा य तिर्यक् भ्रंश कहते हैं।
36.
ब. तिर्यक् प्रदीप्ति (Oblique illumination)-इस विधि में कल्पना की जाती है कि मानचित्र के उत्तर-पश्चिमी कोने के बाहर प्रकाशपुंज रखा हुआ है।
37.
विशेषणों में ओकारांत शब्द विशेष्य के लिंग, कारक के तिर्यक् रूप, और वचन के अनुरूप बदलते हैं, जैसे सुठो छोकरो, सुठा छोकरा, सुठी छोकरी, सुठ्यनि छोकर्युनि खे।
38.
य और ल एक दूसरे पर तिर्यक् कोण बनाते हैं, पर र उस समतल पर, जिसमें य और ल हैं, लंबवत् स्थित रहता है।
39.
जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले देवयान और पितृयाण मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं।
40.
विशेषणों में ओकारांत शब्द विशेष्य के लिंग, कारक के तिर्यक् रूप, और वचन के अनुरूप बदलते हैं, जैसे सुठो छोकरो, सुठा छोकरा, सुठी छोकरी, सुठ्यनि छोकर्युनि खे।