मैंने उनके उपन् यास और कविताओं में से जितना कुछ भी देखा है, उसके बाद मुझे उनमें जो समस् या दिखती है वह यही कि उनकी रचनाएं वस् तु-रूप में तो कहीं कुछ खास गहन या विरल नहीं प्रस् तुत कर पातीं किंतु भाषा में दुर्बोधता सारी सीमाएं रौंदती ही चली जाती है।
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(6) विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो अभिव्यंजना शक्त्ति और साहित्यिक समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे तथा (7) जब स्वदेशी भाषा को समृद्ध करने के लिए नए शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा तो उसके विरोधी उसपर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे।
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(६) विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो उसकी अभिव्यंजना-शक्ति और साहित्यिक-समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे तथा (७) जब स्वदेशी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए नये शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा, तो उसके विरोधी उस पर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे।
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ज्ञान अपनी भाषा को सुविचारित तरीके से न तो मेटानिमिक बनाता है और ना ही कवियों की तरह मेटाफोरिक, बल्कि, इस सबसे अलग दुर्बोधता बनाम् कलात्मक महानता के विरूद्ध लगभग सभी तरह से विषयों को छूती हुई, उसकी एक किस्म की ऐसी भारहीन भाषा है, जो तितली की तरह उड़ती हुई फूल नहीं, उसकी खूबसूरती पर जाकर बैठती है और बाद बैठने के वह खु़द उसका हिस्सा लगने लगती है।