अंज़ली के तालाब या कच्छ में नरकुल, कम गहरे पानी के क्षेत्र और घास के मैदान हैं जिसमें मौसम के अनुसार पानी भरा रहता है।
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ईज़ा को मौन की लम्बी आदत थी, सो वह नरकुल की तरह समय को भारी जूतों के साथ अपने ऊपर से जाता देखती रहीं.
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जिन क्षेत्रों में झूम [3] के लिए कटाई की गई है, वहाँ ऊंची घास, नरकुल और झाड़ीदार वन दुबारा उग आए हैं।
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लकड़ी की पाटी, मिट्टी का बूदिका एक ओर घुली खड़िया, एक ओर घुली करिखा पाटी को काले रंग से रंग सेंठो, नरकुल से …
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ढ़ाँचे की दृष्टि से भारतीय वाद्यों में प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं कीप्रधानता है, सहस्त्रों वर्ष पूर्व बांसुरी जैसे वाद्य हड्डियों, बाँस, नरकुल सींग से बनाये जाते थे ताल वाद्यों में मृत्तिका का ही उपयोग होताथा.
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नरकुल, बाँस या लकड़ी के टुकड़ों को हमारी आज की (यानि आज से क़रीब सौ साल पहले की) क़लमों की तरह बनाकर उनसे लिखने की सारे भारत में प्रथा रही है।
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एक सीधा साधा ग्रहस्थि के पचडो में पडा हुआ इन्सान, तंग्दस्त, मुदरीस! मै तो नदी के किनारे खडा हुआ नरकुल हुं, हवा के थपेडो से मेरे अंदर भी आवाज पैदा हो जाती है!
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छेनी, लौह-शलाका, बांस, नरकुल और खड़िया लेखनी बनती थी और मसि या स्याही सामान्य प्रयोजन के लिए कोयले को पानी, गोंद, चीनी या अन्य चिपचिपा पदार्थ मिलाकर बनाई जाती थी।
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धरती की नीरसता दूर करने के ख्याल से नू वो, ने नदी तट की गीली मिट्टी से एक मानव पुतले का निर्माण किया और उसमें खोखले नरकुल / सरकंडे के माध्यम से प्राण फूंके!
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गुरुजी ने कभी कहा कि पुराने अभिलेख पढ़ना सीखना है तो उसी तरह से खुद लिखा करो, बस फिर क्या था, छेनी तो नहीं पकड़ी, लेकिन कागज कलम से नरकुल तक आजमा ही लिया।