नाव वाला जिसका नाम ' चन्दन' मालूम हुआ ने हमें टिकिट खिड़की से पहले ही लपक लिया-एक सौ साठ रुपए प्रति नाव रेट था.
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हमने कहा अरे इतने पैसे दिए हैं गाना तो हम सुनकर जायेंगे और दूसरी नाव वाला भी तो गा रहा है तुम्हें क्या गुरेज़ है.
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कल कल करता हुआ, बहता ना रुकता हुआ, एक नाव वाला, हमें पार कराता हवा, नाव से पानी के उलीचें लेकर हम तरबतर
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इधर-उधर निरर्थक भटकने के पश्चात वे शाम होते ही अपनी नाव लेकर वापस पंचगंगा घाट पहुँचे, जहाँ नाव वाला उनकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था।
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वो देखो एक नाव वाला कितनी मस्ती से गाता हुआ जा रहा है.......ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में.....सागर मिले कौन से जल में...कोई जाने ना.......
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यह वह जमाना था जब मात्र पचास पैसे या एक रूपैया पा कर भी नाव वाला उफ नहीं करता था बल्कि उसका पूरा ध्यान रहता था कि मोहल्ले के लड़के बिगड़ने न पायं।
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नाव वाला हमें वहां ले जाता है और हम जब तक पानी में मज़े करते है वो वही इन्तजार करता है फिर हमें दूसरी तरफ मंदिर के पास छोड़ देता है और हम दर्शन करते है...
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सबकी अलग-अलग पहचान है कोई पीतल कड़ाही वाला, कोई लोहे की कड़ाही वाला, कोई नीले झंडे वाला कोई लाल झन्डे वाला, कोई गाड़ी वाला, कोई नाव वाला इत्यादि पहचान के पंडे ही पंडे हैं।
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संगम तट पर नाव वालों से उन्होने जब उन्हीं की भाषा में बोलना प्रारम्भ किया और श्राप देकर भस्म कर देने का डर दिखाया तो नाव वाला सही दाम पर हमें नाव पर ले जाने को तैयार हो गया ।
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खैर वह नाव वाला तो भाव ताव करने में ज्यादा रुची नहीं ले रहा था लेकिन पास ही खड़ा दूसरा नाव वाला हमें मात्र 100 रुपये में मंदिर तक का चक्कर लगवाने के लिए राजी हो गया, हम तो खुश हो गए कहाँ 300 रु.