जैसा कि डॉ. के. श्रीलता विष् णु कहती हैं, ” चिरंतनकाल से अपनी अंतर्व्यथाओं को पूरी निःशब्दता से भोगने और पुरुष की स्वार्थ भूमिका को सजाने के लिए भारतीय नारी मानो बदी हुई है।
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आस्था ने स्वयं को तेजी से समझाया और चुपा गई. ' कुछ होने तक इन्तजार करो '-का सूत्र उसे याद आ रहा था आस्था की निःशब्दता से अनंतिम को फिर गलती लगी थी उसे समझने में.
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प्रणय प्रतीति में प्रेम से भरी खुश्बू से सराबोर रचना मन को महक की अनुभूति का नया अहसास कराती है-“ तैर आए नीले समंदरी / सतरंगी उजाले / और महकते फूलों की खुश्बू / एक साथ एक जगह / हो गई थी एकत्रित / निःशब्दता / अनुभूति थी प्यार की ” ।
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समस्त वातावरण में व्याप्त हुई निःशब्दता, शुन्यता को देखकर प्रतीत होता था की समस्त प्रकृति संरचना प्रभु की लीला को कंस से अज्ञात रखना चाहती हो.... प्रातः की किरण एक नए सवेरे का संदेश लेकर सारी नगरी में उतरी....सवेरे की इस किरण में मुरली की अद्भुत, मनमोहिनी तान सुनाई दे रही थी परन्तु बजा कौन रहा था, कोई नही जनता था...