साधना की प्रगति में साधक स्थूल से सूक्ष्म, शब्द से अशब्द, प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष, साकार से निराकार, ससीम से असीम, अहंकार से निरहंकार की ओर बढ़ता चला जाता है और जब वह अशब्द, निराकार, अप्रत्यक्ष और निरहंकार अवस्था पर पहुँचता है, तब उसे ब्रह्म-तत्व का वास्तविक दर्शन होता है।
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साधना की प्रगति में साधक स्थूल से सूक्ष्म, शब्द से अशब्द, प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष, साकार से निराकार, ससीम से असीम, अहंकार से निरहंकार की ओर बढ़ता चला जाता है और जब वह अशब्द, निराकार, अप्रत्यक्ष और निरहंकार अवस्था पर पहुँचता है, तब उसे ब्रह्म-तत्व का वास्तविक दर्शन होता है।
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बारहवें में जो ' अहंता-ममता से शून्य, क्षमाशील और सुख-दु: ख में एकरस '-' निर्ममो निरहंकार: सम-दु: खसुख: क्षमी ' (13), कहा है तथा जो ' शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दु: ख में एक-सा लापरवाह रहे और किसी चीज में चिपके नहीं '-” सम: शत्रौ च मित्रो च तथा मानापमानयो: ।