रही बात बुजुर्गो की तो ठसाठस भरे यात्रियों के बीच नीचे बैठना ही उनकी मजबूरी हो जाती है, क्योंकि अधिक समय तक ऎसी स्थिति में खड़ा रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाता है।
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इस टीम ने साथ मे आये प्रत्येक बुद्धिजीवी का उपयोग किया, जो व्यक्ति अपने लिये उपयोगी लगा, उसे मंच पर बैठाया गया, और उसका पूरा उपभोग करने के बाद उन्हे कहा गया कि आना चाहें तो आयें, किंतु नीचे बैठना होगा।
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घर के काम जल्दी से निपटाकर यहीं आकर थोड़ा आराम मिलता है, इसलिए महिला डिब्बा एक की बजाये दो किये जाने चाहिए ताकि वो अपने कार्यक्षेत्र तक आराम से बैठकर पहुँच सकें, कुछेक को सीट न मिलने पर नीचे बैठना पड़ता है....
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कि कुछ हैरानी न होगी कि बुद्ध का उस वृक्ष के नीचे बैठना और बोधि को उपलब्ध होना, इसमें उस वृक्ष का भी हाथ हो! इस वृक्ष का भी हाथ हो ; यह वृक्ष सिर्फ सांयोगिक नहीं है ; इस वृक्ष का हाथ हो सकता है।
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बरसात की वजह से जमीन गीली होने तथा घास बड़ी होने की वजह से नीचे बैठना ठीक न था तो हम लोग बैठने के लिये उपयुक्त जगह ढूँढने लगे, एक जगह एक कमरे में कवि सम्मेलन चल रहा था, हमने खिसक लेने में भलाई समझी, कहीं पकड़ कर बैठा न लिया जाय।
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बरसात की वजह से जमीन गीली होने तथा घास बड़ी होने की वजह से नीचे बैठना ठीक न था तो हम लोग बैठने के लिये उपयुक्त जगह ढूँढने लगे, एक जगह एक कमरे में कवि सम्मेलन चल रहा था, हमने खिसक लेने में भलाई समझी, कहीं पकड़ कर बैठा न लिया जाय।
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एक बार भगवान बुद्ध के शिष्य आनंद ने उनसे पुछा, “प्रभु, उपदेश देते समय आप तो उच्च आसन पर बैठते है पर श्रोताओ को नीचे बैठना पड़ता है | क्या यह गुरु-शिष्य में भेद की स्थिति नहीं उत्तपन करता?” बुद्ध मुस्कराय फिर उन्होंने पुछा “क्या तुमने झरने का जल पिया है? ” आनंद ने कहा, “हाँ अनेक बार |”
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भारतीय वांगमय में गुरु की अनंत महिमा गाई गयी है-कभी एक गुरुकुल प्रणाली भी हुआ करती थी जब वन उपवनों में गुरु के पैरों के सानिध्य में ज्ञानार्जन होता था-यह उपनिषदीय परम्परा थी-जिसका शाब्दिक अर्थ ही है नीचे बैठना.... लगता है उपनिषद काल तक गुरु का स्थान बहुत ऊंचा था जिसकी प्रतीति कालांतर की इस उक्ति से भी होती है-गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पायं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय...