‘ नाङ्क्रेम ' के नृत्योत्सव में, जब सभी मंडलों के स्त्री-पुरुष खासिया जाति के अधिदेवता नगाधिपति को बलि देते थे और उसके मर्त्य प्रतिनिधि अपने ‘ सियेम ' का अभिनन्दन करते थे, तब नृत्य-मंडली में हीली ही मौन-सर्वसम्मति से नेत्री हो जाती थी, और स्त्री-समुदाय उसी का अनुसरण करता हुआ झूमता था, इधर और उधर, आगे और दायें और पीछे...
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कार्तिक महीने की दीवाली की रातों में इसी पंचायती चौक में जब ‘ मंडाण ' (नृत्योत्सव) लगता, झोपडि़याँ बाजगी की ‘ लाँकुड़ी ' की टंकार ढोल पर पड़ती तो ‘ मंडाण ' में कूदने से चाचाजी को कौन रोक सकता था? सफेद चूड़ीदार पायजामा, सफेद अचकन, सफेद ही दुपट्टा कंधे में झूलता हुआ, सिर पर सफेद पगड़ी पहने हुए किसी गंधर्व से वे चौक में अवतरित हो जाते।