मोछू नेटुआ की दूसरे टैम के अनिश्चित भोजन की तलाश में भटकती खनाबदोश ज़िंदगी के समानांतर यदि व्यवस्था पर भी एक बहस चलती रही है कविता में तो इसमें बुरा ही क्या है-मुझे समझ में नहीं आता।
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मोछू नेटुआ ” इसलिए भी ध्यान आकर्षित करती है क्योंकि उसमें सन्तोष चतुर्वेदी ने उस बिरादरी के एक फ़र्द पर निगाह डाली है जो अंग्रेज़ों के ज़माने ही से अभिशप्त ज़िन्दगी जीने को विवश है और अभी तक उसका कोई निस्तार नहीं.
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भि खारी ठाकुर ने बि देसि या, भाई-वि रोध, बेटी-वि योग, वि धवा-वि लाप, कलयुग-प्रेम, राधेश् याम बहार, गंगा-स् नान, पुत्र-वध, गबरघि चोर, बि रहा-बहार, नकलभांड के नेटुआ, और ननद-भउजाई आदि नाटकों की रचना की।
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जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्पादित भिखारी ठाकुर रचनावली में 24 रचनाओं में 12 नाटक हैं-बिदेशिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलप, कलियुग प्रेम, राधे-श्याम बहार, गंगा स्नान, पुत्र वध, गबरघिचोर, बिरहा बहार, नकल भांड आ नेटुआ के, ननद-भौजाई।
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लेकिन जब एक पूरा समुदाय साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा जन्मना अपराधी क़रार दिया जाये और कथित आज़ादी के बाद भी उसका कोई पुर्सांहाल न हो तो ऐसी कविता एक ज़रूरी दस्तावेज़ बन जाती है, जिसमें महज़ एक समाज-शास्त्रीय कोण ही नहीं है, बल्कि जो हमारे समय को उसकी सारी जटिलता में परखती है, जिसमें सांपों को चीन्ह लेने वाले मोछू नेटुआ के लिए “ आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर / ज़हरीले तौर पर अलगा पाना ”“ एकदमे से असंभव ” होता जा रहा है. ”