आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों कृत्रिम साधनों से, बनावटी सिंगार से कुंवर को धोखें में डाला? अब इतना सब कुछ हो जाने पर वह किस मुँह से कहेगी कि मैं रंगी हुई गुड़िया हूँ, जबानी मुझसे कब की विदा हो चुकी, अब केवल उसका पद-चिह्न रह गया है।
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वह आगत को अनुसरण के लिये ललचाता है, अनुगत की आस्था को आत्मविश्वास के साथ राह दिखाता है, विगत को सजीव संस्मरणों की लड़ियों में रूपायित करता है, परिकल्पनाओं के पंख लगा क्षितिज पर महाकाव्य लिखता है, तथागत के आलोकित पथ को और भी प्रशस्त करता है, समय की शिला पर अपने अमिट पद-चिह्न उकेरता है।
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दिल ये नादाँ फिर दिवाना हो गया! उस गली में आना-जाना हो गया दिल का यारो आबो-दाना हो गया आपसे सुनने-सुनाने की सुनी-किस क़दर दुश्मन ज़माना हो गया कोई तहज़ीबन भी मुस्काया अगर दिल ये नादाँ-फिर दिवाना हो गया ये इबादत-उसके नक़्शे-पा* दिखे फ़र्ज़ अपना सर झुकाना हो गया सिर्फ़ दो दिन आपसे मिलते हुए जाने कब रिश्ता पुराना हो गया-इबादत = उपासना, पूजा नक़्शे-पा = पद-चिह्न तहज़ीबन = औपचारिकता-वश, शिष्टाचार-वश
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बात जब नव परिवर्तनों के दौर की है और वह भी हिन्दी वेब-लॉग यानि ब्लॉगिंग के संबंध में तो 21 अप्रैल, 2003 की तारीख अमिट पद-चिह्न की तरह उल्लेखनीय है कि उस रोज दिन-भर की हलचल के उपरान्त मध्याह्न की ओर पाँव बढ़ा चुकी रात्रि के 22: 21 बजे हिन्दी के प्रथम ब्लॉगर, मोहाली, पंजाब निवासी आलोक ने अपने ब्लॉग ‘ 9 2 11 ' पर अपना पहला ब्लॉग-आलेख पोस्ट किया | उनकी पहली पोस्ट भी कम दिलचस्प नहीं है-