माक्र्सवादी आलोचना की यह कोई साधारण उपलब्धि न थी कि महान से महान समझी जाने वाली रचना भी उस अलौकिक पवित्रता के आवरण से मुक्त होकर अपनी ऐतिहासिक पार्थिवता में देखी और सराही जा सकने के काबिल हुई, जिस की ओट में ‘ महान ' रचनाओं में निहित ‘ संकीर्ण ' मंतव्यों जैसे कि वर्णाश्रम की प्रतिष्ठा या नारीनिन्दा आदि को लोगों के गले उतारा जा सकता था।
32.
डोंगियों के मस्तूलों पर सबाओं के जीर्ण गीत.....गुपचुप, मौन....थका सा कोई अनहद गूंजता है....जैसे किसी बंद खिड़की का बरसों से खुलने का इन्तजार हो.... तट पर बंधी डोंगियाँ कसमसाती है तट छोड़ लहर संग बीच भंवर डूब जाने को आतुर....उफ्फ्फ......कहीं भीतर तक आहत करते हुए जुमले.....एक पार्थिवता अन्दर कहीं गलती जाती है....एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आना चाहता है..... सच कहूँ.....
33.
एक पार्थिवता गलती ही जाती है, पहुंचाती है भीतरी हदों तक, सुनो कहती हूँ,बची हूँ बेछोर आसमान में-बियाँबान जंगलों में, हर, सुनवाई स्थगित है एक राग, एक रंग, एक प्रियता हरदम बुलाती रहती है फूले-खिले टेसू के रंगों में...जहाँ अभी-अभी पेड़ों की टहनियों पर थोड़ा कोमल नन्हे पत्ते उगना शुरू हुए हेँ कुनमुनाती इक्छाओं से एक रूंधता हुआ शब्द बाहर आता है,जिससे दूर है बहुत कुछ मसलन मन्त्र-म्रत्यु तर्पण हार जीत स्मर्ति और बहुत कुछ टूटना-जुड़ना अचिन्हित...कोई स्मृति भूलती नहीं, कोई स्पर्श छूटता नहीं..