माना कि लोकगीतों में चुहबाजियां पुरानी बात है, जिन लोगों को गांव-गिराव की बारातों में जाने का मौका मिला होगा, उन्हें बारात की जीमने के वक्त या दूसरे नेगचार में गाली सुन कर जरूर वैसी ही सिहरन या पुलकन हुई होगी, जैसी पैदा करने के लिए आज के बोलियों या भाषाओं के गीत नारी को बेपरदा और बेआबरू करने लगे हैं।
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मुझे छूती हो तो पुलकन होती है न? मुझे बांहों में समेटती हो तो ऐसा नहीं लगता मानो पूरा आसमान मुट्ठी में आ गया हो? हमारी दुनिया सबसे न्यारी और सबसे प्यारी है माँ...... मैं हूँ... तुम हो... पापा हैं... और क्या चाहिए? सागर कितने गंदे हैं.... जब देखो बिना बात के मुंह फुला लेते हैं...
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फूलों इस प्यार के मौसम में तुम्हारी खुशबू ने सभी का दिल मोह लिया है भँवरें की गुंजन से थरथराती पत्तियों में पुलकन है हवा के साथ सरसराती कोपलें भी खुल गई हैं कितनी मधुपर्की रसपगा अहसास है कि बाँसुरी के सुरों की तरह तरंगित हो रहा है जीवन और एक नदी की तरह घतिमान है नीले समुन्द्र को कहता-सा कि मुझे तुम्हारे अन्दर समाना है मेरा स्वागत करो तुम क्योंकि बसन्त के साथ ही प्रेम का मौसम आता है।
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गेंदा फूला जब बागों में सरसों फूली जब खेतों में तब फूल उठी सहस उमंग मेरे मुरझाये प्राणों में; कलिका के चुम्बन की पुलकन मुखरित जब अलि के गुंजन में तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल मेरे इन बेसुध गानों में; ले नई साध ले नया रंग मेरे आंगन आया बसंत मैं अनजाने ही आज बना हूँ अपने ही अनजाने में! जो बीत गया वह बिभ्रम था, वह था कुरूप, वह था कठोर, मत याद दिलाओ उस काल की, कल में असफलता रोती है!