1990 के आर्थिक सुधारों और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू करने के बाद भारत की पूँजीवादी राज्य सत्ता ने देशी-विदेशी निवेशकों को आकर्शित करने और 8-9 प्रतिशत की “ विकाश ” दर हासिल करने के लिये मज़दूरों के सभी अधिकारों को एक-एक कर लगातार सीमित किया है जिसका पूरा फायदा यह कम्पनियाँ उठा रही हैं और अतिरिक्त मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये मज़दूरी का स्तर निचा से निचा रखने का प्रयास किया जाता है।
32.
लेकिन तब दिमाग़ में यह भी सवाल पैदा होता है कि माकपा स्वयं हमेशा इसी बात का नुस्ख़ा तो सुझाती है कि पूँजीवादी राज्य अगर कल्याणकारी नीतियों अपना ले, अगर वह घरेलू माँग को बढ़ाकर रोज़गार पैदा करे, और अगर वह अल्पउपभोग को समाप्त कर दे तो सबकुछ ठीक हो जायेगा! अब इसे सुधारवाद न कहा जाय तो क्या कहा जाय? इसका जवाब भी करात व येचुरी जैसे नट ही दे सकते हैं!
33.
सामाजिक (अ) व्यवस्था की यह पूरी प्रक्रिया किसी पूंजीपति, किसी धर्म के ठेकेदार या किसी आध्यात्म गुरु की इच्छा से स्वतंत्र है, इसको नियंत्रित करने के लिए पूँजीवादी राज्य अपने सिर से पैर तक सारी कोशिश करता है, लेकिन भौतिक उत्पादन की परिस्थियों के इस दुष्परिणाम और व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र का कोई विकल्प न दे पाने की स्थिति में जनता को मूर्ख बनाने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके और जुमले इज़ाद करने की कोशिश करता हैं।