शोध की आवश्यकता वहां भी है जहाँ (धर्म ग्रंथों में नारी को अधिक स्वतंत्रता न देने की बार बार सिफारिश है-जिमी सुतंत्र भई बिगरहिं नारी! प्रमदा सब दुःख खान! आदि आदि)..आगे भी लिखिए...निष्पत्ति?
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यह नाम तो केवल नारी-स्वीकृति के लिये साहित्य में स्वीकृत कर लिये गये ताकि रूक्ष पुरुष प्रमदा का शोषण करता ही न रह जाय! मैं निवेदन करुँगा कि इस घासलेटी चिंतन में थोड़ा साहित्यिक दर्शन को स्थान दें ।
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शोध की आवश्यकता वहां भी है जहाँ (धर्म ग्रंथों में नारी को अधिक स्वतंत्रता न देने की बार बार सिफारिश है-जिमी सुतंत्र भई बिगरहिं नारी! प्रमदा सब दुःख खान! आदि आदि).. आगे भी लिखिए... निष्पत्ति?
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लेडी के लिए महिला, औरत, नारी, कन्या, बालिका, प्रमदा, और न जाने कितने शब्द हिन्दी में हैं तो ‘ लेडीज ' का हिन्दी भाषा में आमेलन और फिर इसका ‘ लेडीजों ' तक का भोंडा प्रयोग कत्त ई उचित नहीं है।
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क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर, ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर ; जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो, प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में, पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में.
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और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि ; हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि किंतु उसी क्षण भूख प्यास से विकल वस्त्र वंचित अनाथगण, ' हमें किसी की छाँह चाहिए ' कहते चुनते हुए अन्नकण, आ जाते हैं हृदय द्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण, हाय! मुझे धिाक् है जो इनका कर न सका मैं कष्टनिवारण।
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फिर भी विराहज स्पंदन न स्तब्ध क्यों प्रोषित पतिका प्रमदा का? क्यों सलिल राशिः भैरव निनाद लोटता अवनि पर धुन माथा? पावस घन चपला लिए अंक में धावित यह कैसी गाथा? बस लिपट गयी कुछ कह न सकी बावरिया बरसाने वाली-क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥ २०॥-पूछा तुमने अति पास बैठ ” अब भी न जान पाया आली ।
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ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है, जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर, ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर; जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो, प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में, पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में.