शांखायनगृह्यसूत्र * के अनुसार ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह किसी को अपने एवं दण्ड के बीच से निकलने न दे, यदि दण्ड, मेखला एवं यज्ञोपवीत टूट जायें तो उसे प्रायश्चित्त करना चाहिए (वैसा ही जैसा कि विवाह के समय वरयात्रा का रथ टूटने पर किया जाता है) ।
32.
“ तुम्हारे विचार सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई | एक मामूली-सी बीमारी ने तुम्हारे विचार बदल दिए | किसी भी पाप का दंड यही है, अपने पाप को स्वीकार कर प्रायश्चित्त करना | यह धन-दौलत तो बेकार की चीज है | आज है कल नहीं | इससे मोह करना बुद्धिमानी नहीं है | ”
33.
प्रायश्चित्त का नहीं, प्रतीकार का नहीं, तुम्हारे मुख पर से वह घोर कलंक का टीका मिटाने का नहीं, तुम्हारे योग्य बनने का नहीं ; केवल यह दिखा देने का कि मैं प्रायश्चित्त करना चाहता था, तुम्हारे मुख से वह कलंक मिटाकर तुम्हारे योग्य बनना-तुम्हारे योग्य बनने का प्रयत्न करना-चाहता था! संसार शायद फिर भी मेरे नाम पर थूकता रहेगा, रहे।