प्रत् यक्षा के पास वाकई संजोकर रखी स् मृतियों का खजाना है, वे बेशक कहती हो कि उन् हें याद नहीं, लेकिन बचपन की उन स् पंदित कर देने वाली जगहों, प्रसंगों, रिश् तों और उनसे उपजने वाली परिकल् पनाओं को वे जिस खूबसूरती से बयान करती हैं, उसमें वाकई उनके संवेदनशील कथाकार का कौशल झलकता है, कहीं अपना महिमा-मंडन नहीं, कहीं बेमतलब के ब् यौरे नहीं, जो वाकई याद रखने लायक है और आज तक उनकी स् मृति-परतों में अंकित है, उसी को सहेज-फूंककर फिर से सजा दिया है।