यह मेरी प्रकृति सी है कि मानवेत्तर घटनाएँ ही मुझे चौंका पाती हैं, अजीबोगरीब बातों में मुझे कविता की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, विरोधाभासी बयानों में मुझे वक्ता की शक्तिशाली दुश्मन से लड़ते हुए कमजोर नायक की जद्दोजहद दिखाई पड़ती है इनटू यह सब मेरा सनकीपन नहीं वरन सीमाओं से परे देखने की जन्मजात अनुसंधित्सु प्रवृत्ति का बाह्याचार है।
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नास्तिकता के बाह्याचार तो अपनी नासमझी में अथवा बचपन में सभी बच्चे करते हैं-मसलन शंकर जी की गोल पिंडी को पत्थर का अंडा अथवा लोहे की गेंद समझकर उछालना फेंकना या ठुकरा देना, बिना नहाए धोये किसी भी देवी देवता की मूर्ती को छू या उठा लेना, भोग या प्रसाद को खा जाना.... इन सब से कोई नास्तिक नहीं हो जाता।
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जो कोई भी मेरे प्यार को कष्ट देगा, उसके रास्ते में बाधा डालेगा, मुझसे दूर करने की कोशिश करेगा, दुनिया के जंजाल में फाँसेगा, अलग-अलग पंथों में भटकायेगा, ऊंच नीच का बाज़ार चलाएगा, बाह्याचार में उलझायेगा फिर चाहे वो ब्राह्मण हो या वैष्णव, शाक्त हो या वैरागी, योगी हो या अवधू, हिंदू हो या तुरक, काजी हो या पंडित, उसे मैं जड़-मूल से वंचित कर देता हूँ.
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बोला-आप मुझे क्या समझ रहे हैं मुझे नहीं मालूम किन्तु मैं क्या हूँ आपको सच सच बताऊंगा लेकिन उससे पहले मैं कहके रहूँगा कि आख़िर मैं भी उसी समाज का अंग हूँ जिसके आप हैं फिर आपमें और मुझमें समझ का यह अंतर क्यों? मैं एक घोर परंपरा वादी खानदानी पुजारी पुत्र होकर भी, जिस बाह्याचार को आप मेरी नास्तिकता कहते हैं जबकि नास्तिकता किसी व्यवहार का नाम नहीं, के छुपाव को उचित नहीं मानता फिर आप क्यों न चाहकर भी सिर्फ़ बह्याचरण से आस्तिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं? बताइये।