इन मुलायम और गरम पंखों के नीचे कई चाहतें, कई सपने, कई कल्पनाएँ, आशाएँ अपनी छोटी, पतली और लम्बी गर्दनें निकालकर निरीह और भयहीन आँखों से संसार का स्तंभित-सी देख रही थीं-उस आकाश, उस धरती को जो लाखों वर्ष पुरानी थी, परन्तु उसके लिए आज ही, अभी, कच्चे दूध सी मीठी और कुनकुनी, सिर्फ़ उसके लिए बनी थी, सिर्फ़ उसी के लिए ही।
32.
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः, मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः || ” (गीता ६ / १ ४)-स्थिर प्रज्ञ, भयरहित, ब्रह्मचर्य में लीन, मन को वश में किये हुए, सन्तुलित व्यक्ति सदा आत्मलीन रहता है तथा परमतत्व को प्राप्त होता है | तथा जो यह मान लेता है कि समस्त गुण त्रिगुणात्मिका प्रकृति से ही हैं वह अध्यात्म को प्राप्त हो जाता है और इसलिये भयहीन हो जाता है “
33.
तन, मन, धन से जो वतन के लिए वलिदान हुए वे तो अब किस्से कहानियां बन गए वैश्विक बदलाव में घिरी है जन-संस्कृति चरागाहों में आ गए हैं बनैले पशु बेमेल, भुतही आकृति वे भयहीन, मुक्त भाव से आ गए हैं लेकर अपने साज-सामान, नववृत्ति परतंत्रता की हवा चलने लगी है चारों ओर से ऐसे में आमजन अपने दायरे में असमर्थ और विवश हैं एक ऐसा युग आ गया है जहां विकास चौबन्द है अब तो अपयश भी यश है उनके हाथों में मुक्त बाजार का कलश है।