यहां हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का मुख्य आधार भाषा के बोले गए नहीं, बल्कि लिखित-रूप होता है।
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परंतु हिंदी में बहुत सारे कार्य ऐसे भी हैं जो भारतीय व्याकरणिक परंपरा के आधार पर भी हुए हैं और इनमें से कई ऐसी परंपराएं हैं जो वैश्विक भाषा-वैज्ञानिक सिद्धांतों की जनक हैं।
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मैंने हिन्दी सिखाने के लिये व्यावहारिक, भाषा-वैज्ञानिक और आधुनिक रीतियों का पालन किया और प्रायः वह मानक ब्रितानी पद्धति अपनाई, जो अंग्रेज़ी को विदेशी भाषा के रूप में सिखाने वाली स्वीकृत पद्धति है ।
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अलग-अलग भाषा-वैज्ञानिक कुल-कुनबों मे बंटी ये सारी भाषाएं वास्तव में विस्थापितों की भूमि पर आ कर एक हो जाती हैं, क्योंकि इन सभी में उसी एक अमानवीय-सत्ता और स्थिति के प्रति संघर्ष और संवाद का बिन्दु है।
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अलग-अलग भाषा-वैज्ञानिक कुल-कुनबों मे बंटी ये सारी भाषाएं वास्तव में विस्थापितों की भूमि पर आ कर एक हो जाती हैं, क्योंकि इन सभी में उसी एक अमानवीय-सत्ता और स्थिति के प्रति संघर्ष और संवाद का बिन्दु है।
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यहां प्रख्यात भाषा-वैज्ञानिक डॉ. भद्रिराजु कृष्णमूर्ति के शब्द उल्लेखनीय हैं कि तेलुगु अपने दक्षिण और पश्चिम में प्रयुक्त तमिल और कन्नड के बजाय उत्तर और पूर्व में प्रयुक्त ' कुई ' आदि भाषाओं के निकट है ।
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शीर्षक किसी का कोटेशन नहीं है | रचना! ऐसे शैलीगत प्रयोग को भाषाविज्ञान / समाज भाषाविज्ञान प्रोक्ति कहता है ; जिसे “ वाक्य पदीयम् ” ने ‘ महावाक्य ' की संज्ञा दी है | किसी सच्चे और खरे भाषा-वैज्ञानिक / शैली वैज्ञानिक से पूरी जानकारी मिल सकती है |