भारवि कुछ अलग थी सुबह मेरी आँखों में वह उतरा उसके पारदर्शी पर्दों से झांकते थे पत्ते सिन्दूरी, कुछ पीले, हरे कुछ बिखरे पड़े थे भूरी मिट्टी पर बेतहाशा ये कहीं डर न जाएँ मेरे शोर से मैं चली आहिस्ता पर न जाने सृष्टि का कौन-सा संगीत छिपा था उनमें मेरे पैर पड़ते ही वह सोता कोंपल-ध्वनियों का भीगी घास पर बजता रहा जैसे ओस का जलतरंग मेरे भीतर की अँधेरी गुफा आज देख रही थी सफ़ेद आकाश गुफा का काला घुलने लगा था शुभ्र में.