मादक मंद समीर बसंती, छूकर तन, मन को सिहराए,इस मोहक बेला में साथी, आये, बहुत याद तुम आये!!!नींद पखेरू,पलकों को तज,स्मृति गगन में चित भटकाए,इस नीरव बेला में साथी,आये, बहुत याद तुम आये!!!पूनम का चंदा ये चकमक,छवि बन तेरा, नेह लुटाये, इस मादक बेला में साथी,...
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मन गवाक्ष फिर फिर खुल जाये, शीतल मंद समीर बहायेपंथी पथ के बदल रहे पर पथ बेचारे वहीं रहे मन की बात सुना भी डालो, यह दर आज खुला ही छोड़ोद्वार भव्य है भवन अनूठा, पर मेरा तो मन है झूठादिल खुला दर भी खुला था, मीत फिर भी न मिला थावसुंधरा का प्यार है, खुला-खुला ये द्वार है दस द्वारे को पिंजरा, तामे पं (...) '
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कभी मुझ पर भी बहार आती थी मुझ पर भी नव-पल्लव खिलते थे मेरे फूलों की मादकता से मधुकर मदहोश रहा करते थे रंग-बिरंगी तितलियाँ चारों ओर मंडराया करतीं थीं मंद समीर की लहरें मुझको सहलाया करतीं थीं दिनकर अपने तेज से मुझमें चमक लाता था रजनीकर अपनी छाया से शीतलता दे जाता था कितने ही पंछी मुझ पर नीड़ बनाया करते थे मेरी घनी छाया में क्लांत पथिक भी सुस्ताया करते थे.
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कृति जी आपकी इस पोस्ट की मै प्रतिक्छा कर रहा था, कवियित्री के संवेदनशील हृदय से उपजा अति सुंदर उदगार, वही कृति जो नदियों के कल कल में, जल प्रपात के कोलाहल में, शीतल मंद समीर में भी,,,,, संकल्पित प्रयत्न हमेशा सार्थक होता है,, अति सुंदर लेखनी को सदैव तीक्षण रखिये (अस्त्र और लेखनी दोनों को ही सदैव तेज रहना चाहिए, क्योंकि अस्त्र और लेखनी दोनों ही हृदय पर आघात करते हैं) …….