विगत चालीस पैंतालीस वर्षों से हिन्दी लघुकथा के विधा तथा रचनात्मक विकास के हमसफर रहे मुझ जैसे पाठक, जिसकी निगाहों से कई रचनाएँ गुजरी हो ;उसके लिए श्रेष्ठ वरीयता या पसंदीदा क्रम तय करना वैसा ही दुष्कर कार्य है ;जैसे लड़ी में से आब विशेष के मोती, महकदार फूलों या खूबसूरत चेहरों में से किसी एक या दो का चयन।
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|प्रथम-द्वितीय है ये सफलता की सीढ़ी, बिना जैसे ड्राईवर या कोयले के नहीं बढती आगे छुक-छुक गाड़ी!राह है यह जो काँटों से भरपूर,चाह है हो गुलाब-सी महकदार,लम्बा ये सफ़र आपदाओं का,सुंदर तराना भावनाओ का,जो साहस से करे सामना, वही …इस सांसारिक भीड़ में जाता है पहचाना!जो बुना था सपना मैंने, चाहता हू...
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दीवारें उठती हैं आदमी के चेहरे की तरफ़ बादल उगते हैं पहाड़ से उसके घोड़े की लगाम तक शिन के पक्के रास्ते पर महकदार पेड़ हैं, उनके तने सड़क के पत्थरों को फोड़ कर निकले हैं, और पहाड़ी नाले अपनी बर्फ़ से फूट रहे हैं शोकू के बीचों-बीच, जो एक गर्वीला नगर है इन्सानों का नसीबा पहले से तय हो चुका है, ज्योतिषियों, से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं।
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घास कच्चे नींबू के पत्ते की तरह नरम हरी रोशनी से पृथ्वी भर गयी है इस भोर की बेला में ; कच्चे चकोतरे की तरह हरी घास-वैसी ही महकदार-हिरन जिसे कुतर रहे हैं दाँतों से मेरी भी इच्छा होती है-इस घास की गन्ध को एक-एक गिलास करके पीता रहूँ हरी मदिरा की तरह इस घास के शरीर को मसलता रहूँ-उसकी आँखों पर आँखें घिसूँ, इस घास के डैनों पर है मेरे पंख, घास के भीतर घास हो कर जन्म लूँ।