आज नारी अस्मिता एवं अस्तित्व का प्रश्न अनेक आयामी है l एक लम्बी पुरानी स्थापित व्यवस्था को तोड़कर जन-संघर्ष से जुड़ना और कदम-कदम पर यथार्थ से मुठभेड़ करना ही अस्तित्व की पहचान का तकाज़ा है l यह नारी समाज की सच्चाई रही है कि परिवार में उसकी आवाज को दबाकर उसकी आकांक्षा को कुचल दिया जाता है l उसकी आवश्यकताओं की भी उपेक्षा की जाती रही है.
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आप समझ सकेंगे कि मुख्यधारा मीडिया का ही एक शख्स 2004 में आतंकवाद के नाम पर की जानेवाली कवरेज और इशरत की हत्या को फर्जी एनकाउंटर बतानेवाले रिपोर्टर की बात को हम आगे बढ़ाने की जहमत क्यों नहीं उठा पाए? आतंकवाद के नाम पर जो एकतरफा स्टोरी चली, उससे अलग स्टोरी करने का मतलब था पत्रकारिता की नई लकीर खींचना, आरएसएस के साथ सीधे-सीधे मुठभेड़ करना.
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अपने समय से मुठभेड़ करना साहित्य का ध्येय होना चाहिए ।.... शब्द बचेंगे पर उन्हीं के हिसाब से जो शब्द को प्रॉडक्ट बनाये दे रहे हैं ” सत्र समाप्त होते-होते होटल पाइनवुड के कॉन्फ्रेस हाल की उत्तर दिशा वाली कांच के खिड़कियों-दरवाजों वाली दीवार से कुछ देर पहले जो पहाड़ों की चोटी पर सांध्य की रूपहली आभा नजर आ रही थी वह ठण्डी स्याह रात में बदल गई थी ।
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साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न यही हैं | आज के साहित्य व् आज की आलोचना को इन्हीं प्रश्नों से मुठभेड़ करना है | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुखौटे में फासीवाद की आहटें ज्यों-ज्यों तेज हो रही हैं, त्यों-त्यों साहित्य को अपनी सामाजिक जड़ों की तलाश करते हुए सार्थक हस्तक्षेप की जरुरत भी दरपेश है | प्रेमचंद की परम्परा इस सार्थक हस्तक्षेप का वह घोषणा पत्र है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पूर्व-स्वाधीन भारत में | जरुरत है इसको पुनर्परिभाषित का अद्यतन बनाने की, आज की आलोचना का यही साहित्यिक दायित्व है |