इसखर्च की पूर्ति के लिए हीनार्थ-प्रबन्धन का सहारा लेना पड़ सकता है, परन्तु यदि हीनार्थ-प्रबन्धन बड़ी मात्रा में किया गया तो मुद्रा-प्रसारकी समस्या उत्पन्न हो सकती है और यदि मुद्रा-प्रसार गम्भीर हो जाता है तोअर्थ-व्यवस्था में बहुत-सी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं जिससे आर्थिक विकासप्रोत्साहित न होकर निरुत्साहित (हम्पेरेड्) होता है.
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(इइ) परिवर्तनशील आय वाले विनियोक्ता (ईन्वेस्टोर्स् ओङ् ईन्चोमेघ्रोउप्):--ऐसे विनियोगकर्ता, जिनकी आय, उत्पादन तथा व्यापार की मात्रा परनिर्भर करती है, उनको मुद्रा-प्रसार के समय काफी लाभ होता है, क्योंकिमुद्रा-प्रसार के समय बढ़ते मूल्यों के कारण उत्पादन तथा व्यापार कीमात्रा में काफी वृद्धि होती है जिनका लाभ इस विनियोक्ता वर्ग को भीप्राप्त होता है.
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उसे हम आर्थिक प्रक्रिया का एक बुरा पहलू ही कहेंगे कि यह हमेशा रहस्य ही होता है कि बाजार और बाजारीय नियम कैसे बनते हैं, इसकी व्याख्या की यहां जरूरत नहीं है जैसे-मांग और पूर्ति के उतार-चढ़ाव के आधार पर अर्थशास्त्री मुद्रा-प्रसार और मुद्रास्फीति की गणना करते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते कि आखिर दाम कौन निश्चित करता है?
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(३) बैंकिंग विस्तार (ऐद्पन्सिओन् ओङ् भन्किन्ग् श्य्स्टेम्):--मुद्रा-प्रसार केकारण बैंकिंग संस्थाओं का विस्तार होता है, क्योंकि एक ओर तो इस समयलोगों की आय में होने वाली वृद्धि से बैंकों में बचत में वृद्धि होतीहै--बचत में होने वाली वृद्धि से बैंक--जमाओं में वृद्धि होती है इसकी ओरमुद्र-प्रसार के कारण सभी क्षेत्रों का (यथा व्यापार उद्योग आदि) विस्तारहोने से साख की माँग बढ़ती है--परिणामस्वरूप बैंकिंग कार्यों में वृद्धिसे बैंकिंग की आय बढ़ती है.
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(१३) व्यापार सन्तुलन का विपक्ष में होना (ऊन्ङवोउरब्ले भलन्चे ओङ्ठ्रडे):--मुद्रा-प्रसार के समय उत्पादन में सहयोग देने वाले सभी साधनोंयथा कच्चा-माल, श्रम, पूँजी पर ब्याज-दर में सभी के मूल्यों में होनेवाली वृद्धि के कारण वस्तुओं की उत्पादन-लागत बढ़ने लगती है-इससे उनकीकीमत अधिक हो जाती है--कीमत अधिक हो जाने के कारण विदेशों में देशीवस्तुओं की माँग घटने लगती है--इससे निर्यात-कम हो जाता है तथा दूसरी ओरविदेशों में निर्मित सस्ती वस्तुओं का आयात बढ़ने लगता है.