सईदुल खुदरी ने कहा कि एक बार जब रसूल नमाज पढ़ चुके और मुसल्ला उठा कर एक खुतबा (व्याख्यान) सुनाया और कहा मैंने आज तक औरतों से अधिक बुद्धि में कमजोर किसी को नहीं देखा.
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नमाज़ के लिए मुसल्ला बिछा देते हैं तो इब्ने अब्बास सवाल करते हैं कि मौला क्या यह समय नमाज़ के लिए उचित है? इमाम (अ) ने फ़रमाया कि हम इसी नमाज़ के लिये तो जंग कर रहे हैं।
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हे प्रभु, तुम्हारी लीला अपार है | तुम कहीं तुरक बनकर, मुसल्ला पर बैठकर नमाज़ पढ़ते हो, तो कहीं भक्त बनकर जप करते हो | कभी घुंघट के घोर अन्धकार में चले जाते हो और कभी घर-घर जाकर सभी से लाड़-प्यार करते हो |
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जब बात सूफ़ियों की चली तो कुछ अशआर ज़हन में आ रहे हैं-ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब' तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता फ़स्ले बहार आई पियो सूफ़ियों शराब बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए....आतिश आज एक और शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा जनाब मुज़फ़्फ़र रिज़मी।
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मिर्ज़ा साहब ने अपने आपको मसीह के सदृश बताया है, हालाँकि हदीस व कुरआन में कहीं भी मसीह के सदृश होने का ज़िक्र नहीं, बल्कि हदीसों में इस बात की व्याख्या की गई है कि इमाम मेहदी दमिश्क़ की जामा मस्जिद में सुबह की नमाज़ के लिए मुसल्ला पर खड़े होंगे।
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मग़रिब की अज़ान-दादी जान मुसल्ला लेकर अपने कमरे में चली गयीं, अम्मी वज़ू के लिए गुस्लख़ाने की तरफ जाने लगीं, और आपा ने दुपट्टा सर पे रख लिया लेकिन मुन्ना इस सबसे ग़ाफिल अपने बूढे़ नौकर बाबू मियां को ताकता रहा, जिसके दोनों हाथ पापा के दुमकटे कुत्ते के चाटे हुए बर्तन को तेजी से मांजने में मसरूफ थे।
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' काजी हाफिज साहब के पास पहुंचे तो उन्होंने यह दूसरी कड़ी लगाकर तुक पूरी कर दी-‘ के सालिक बेखबर न बवद, जे राहो रस्मे मंजिलहा ' अर्थात अगर मुर्शिद तुझे कहे कि मुसल्ला शराब में रंग ले तो बिना चूं चपड़ किऐ उसके हुक्म की तामील कर क्योंकि वह सारे ऊँच-नीच को जानने वाला है।
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वत तखेज़ू मिम मकामे इब्राहीमा व मुसल्ला की मिसाल को तकलीदी मज़हब ने पारा पारा कर दिया था | सुल्तान इब्ने मसूद रह 0 कि कब्र को अल्लाह नूर से भरे कि जब अल्लाह ने उसे हिजाज़ का बादशाह बनाया तो उसने 1343 हिजरी मे बैतुल्लाह से इस बिदअत को मिटा दियाऔर चारो मुसल्लो को ढहा दिया और अल्हम्दुलिल्लाह अब एक ही मुसल्ले पर नमाज़ होती हैं |
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हज़रत अली अलैहिस्सलाम दुनिया के बारे में फ़रमाते हैं कि “ इन्ना अद्दुनिया दारु सिदक़िन लिमन सदक़ाहा......... व दारु ग़िनयिन लिमन तज़व्वदा मिनहा, व दारु मोएज़तिन लिमन इत्तअज़ा बिहा, मस्जिदु अहिब्बाइ अल्लाहि व मुसल्ला मलाइकति अल्लाहि व महबितु वहयि अल्लाहि व मतजरु औलियाइ अल्लाहि ” [91] यानी दुनिया सच्चाई की जगह है उस के लिए जो दुनिया के साथ सच्ची रफ़्तार करे,.....
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महीने के पहले दिन अपनी गर्म जेब में हाथ डाले बुरा नहीं लगता हमें भी किसी अच्छे रेस्तराँ में जाना अपनी अर्धांगिनी के साथ ख़रीदना चाहते हैं हम भी अपने बच्चे के लिए खिलौने और किताबें माँ के लिए एक मुसल्ला जिसके बिना भी वह मांगती रहती है दुआएँ सारे जग की सलामती के लिए हम भी ख़रीदना चाहते हैं अपनी प्रेमिका के लिए क़ीमती उपहार जिससे नापी जाती है सच्चाई प्यार की महानगरों में