कोई समझे तो धर्म का मूल क्या है-मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: (३-१-१) धर्म का मूल है शंकर और शंकर का कोई संकीर्ण मतलब ना निकाले, शंकर का मतलब है कल्याण.
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, क्योंकि कुछ लोगों को विस्वास नहीं हैं,हमें अपने गुरुदेव त्रिमूर्ति जी / सदगुरुदेव जी जी के विस्वास पर भरोषा हैं ही.फिर जब मंत्र मूलं गुरु वाक्य कहाँ गया हैं तब ये हम ये कैसे कर सकते हैं.)
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जहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की-शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती-अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष है।
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जहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की-शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती-अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष है ।
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जहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की-शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीर मूलश्व पुरुषो भवती-अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष है ।
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दत्तात्रेय ने उत्तर दिया, “ मूलं नास्ति कुतः शाखा! ” मूल का ही पता नहीं, तो बाकी सँदर्भ (शाखायें) के सवाल ही कहाँ? स्वयँ में या थेरैपी देने वाले कर्ता में विश्वास कुछ फल दे सकता है, पर ऎसा विश्वास और उसकी दृढ़ता तो स्वयँ आपके अंतः में ही निहित होती है ।
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सातवें वृक्षांग सूत्राध्याय में वृक्ष के अंगों का वर्णन करते हुए पाराशर कहते है-पत्रं (पत्ते) पुष्प (फूल) मूलं (जड़) त्वक् (शिराओं सहित त्वचा) काण्डम् (स्टिम्) सारं (कठोर तना) सारसं (च्ठ्ठद्र) र्नियासा (कन्ड़द्धड्ढद्यत्दृदद्म) बीजं (बीज) प्ररोहम् (च्ण्दृदृद्यद्म)-इन सभी अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है।
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वह मन को विसर्जित कर अपने चित्त पर गुरू की प्रतिमा अंकित कर पायेगा [ध्यान मूलं गुरोर्मुर्ती] ; वह अपने ह्रदय के भावों के माध्यम से गुरू चरणों पर अश्रु-पुष्पों की वर्षा कर पायेगा [पूजा मूलं गुरोर्पदम] ; वह गुरू के द्वारा प्राप्त मंत्र/कार्य को सार्थक करने हेतु कठिन पुरुषार्थ में प्रवृत्त होगा [मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं] और अंततः निश्चिन्त हो गुरू के हाथों में अपनी गति तो समर्पित कर देगा [मोक्ष मूलं गुरोर्कृपा]
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वह मन को विसर्जित कर अपने चित्त पर गुरू की प्रतिमा अंकित कर पायेगा [ध्यान मूलं गुरोर्मुर्ती] ; वह अपने ह्रदय के भावों के माध्यम से गुरू चरणों पर अश्रु-पुष्पों की वर्षा कर पायेगा [पूजा मूलं गुरोर्पदम] ; वह गुरू के द्वारा प्राप्त मंत्र/कार्य को सार्थक करने हेतु कठिन पुरुषार्थ में प्रवृत्त होगा [मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं] और अंततः निश्चिन्त हो गुरू के हाथों में अपनी गति तो समर्पित कर देगा [मोक्ष मूलं गुरोर्कृपा]
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वह मन को विसर्जित कर अपने चित्त पर गुरू की प्रतिमा अंकित कर पायेगा [ध्यान मूलं गुरोर्मुर्ती] ; वह अपने ह्रदय के भावों के माध्यम से गुरू चरणों पर अश्रु-पुष्पों की वर्षा कर पायेगा [पूजा मूलं गुरोर्पदम] ; वह गुरू के द्वारा प्राप्त मंत्र/कार्य को सार्थक करने हेतु कठिन पुरुषार्थ में प्रवृत्त होगा [मंत्र मूलं गुरोर्वाक्यं] और अंततः निश्चिन्त हो गुरू के हाथों में अपनी गति तो समर्पित कर देगा [मोक्ष मूलं गुरोर्कृपा]