23-27) में जो उत्तरायण-दक्षिणायन का वर्णन है उसी का उल्लेख ' योगिन: प्रति च स्मर्यते ' (4 । 2 । 21) में आया है।
32.
दुलैयाजू की एक गति, एक मरोड़ न जाने कितनी गुदगुदी पैदा कर देती है, कचनार जब चलती है, ऐसा जान पड़ता है कि किसी मठ की योगिन है।
33.
एक जैनाचार्य ऊँ को नमस्कार करते हुए उसे ' कामप्रद ' तथा ' मोक्षप्रद ' बतलाते हुए कहते है:-ओंकार बिन्दु संयुक्तं, नित्य ध्यायन्ति योगिन: कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नम: ।।
34.
सोमरस पुष्टि, अह्र्लाद तथा बुद्धि वर्धकता आदि उत्तम गुण उत्पन्न करता हैं, सुरापान के समान दुर्मद उत्पन्न नहीं करता अर्थात जैसे सूरा (शराब) बुद्धिनाशक तथा शरीरगत बलनाशक होती हैं वैसा सोमरस नहीं, इसलिए हे कर्म योगिन.
35.
अर्जुन को अब भान हुआ कि मैं कितने पानी में हूं | उन्होंने कहा, “ योगेश्वर! यदि आप चाहते हैं कि वह पापनिष्ठ अभी लुप्त हो जाए तो आप अपनी तलवार मुझे दे दीजिए | योगिन! मैं प्रतिज्ञा करता हूं इसी क्षण मैं आपको उसका मुण्ड दिखला रहा हूं | ”
36.
36) आदि योगसूत्रों में जो लिखा गया है कि पूरे अहिंसक को साँप-बिच्छू और सिंह-बाघ आदि भी नहीं छूते और पूरा सत्यवादी जो भी कह देता है वह जरूर हो जाता है, उसे भी ऐसे आदमी की सिद्धि या शक्ति ही उन सूत्रों के व्यासभाष्य में यों कहा गया है, ' तदा तत्कृतमैश्वर्यं योगिन: सिद्धिसूचकं भवति।
जिसके बिना एक प्रहर भी नहीं बीतता उसी के बिना मेरा जीवन कैसे बीतेगा | मुझ बिलखती हुई अबला को छोड़कर हे जेठवा तू मुझे योगिन बना गया | “जोगण करग्यो” में एक उलाहना भरी हृदय की मौन चीत्कार छिपी है | अब मेरा जीवन कैसे चलेगा | यह प्रश्न क्या दुखी हृदय में नहीं उठता? अपनी अमूल्य निधि को खोकर “बिलखतड़ी वीहाय ” कहकर इस बेबसी भरे हाहाकार को “जोगण करग्यो” कहकर धीरे से निकाल देती है |