पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने शासन काल में और ख़िलाफ़तों के शुरुवाती दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद के इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे फ़ायदा उठाया जाना मुम्किन था तो यह इस्लामी फ़ोकहा को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम ने अल्लाह के हुक्म की पैरवी में मुतआ को हलाल और रायज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्में के बाद इस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है।