फिर भी ये किसी बिडम्बना से कम नहीं है कि हमारे समाज में एक महिला का विधवा होना एक विधुर पुरूष के मुकाबले कहीं ज्यादा कष्टकारी है।
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लड़की का विधवा होना और पुरूष का विधुर होना, पिता का न रहना और माँ का न रहना संबंधित व्यक्ति से लेकर समाज तक अलग संदर्भों मे संप्रेषित होगा।
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लेकिन जो स्त्री तृतीया तिथि को व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, वह सात जन्म तक वन्ध्या रहती है, और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है।
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लड़की का विधवा होना और पुरूष का विधुर होना, पिता का न रहना और माँ का न रहना संबंधित व्यक्ति से लेकर समाज तक अलग संदर्भों मे संप्रेषित होगा।
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पर एक स्त्री का विधवा होना व आय का स्थायी स्रोत नहीं होने के बावजूद अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करना निश्चय ही बहुत बड़े जीवट का काम है.
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उस समय नागपत्नियाँ, जो कृष्ण की परम भक्त थीं, प्रार्थना करने लगीं कि भगवद विरोधी पति की स्त्री होने के बदले हम विधवा होना ही अधिक पसन्द करती हैं।
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वह ऐसी वैवाहिक रश्मों के पूरा होने भर को शादी मानने से इन्कार करने के साथ ही वह पति धर्म और पत्नी के दुःख-सुख का ध्यान न रखने वाले शख्स से रिश्ता तोड़कर मृतक की विधवा होना स्वीकार करती है.
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विधवा होना एक अभिशाप माना जाता था और विधवा का जीवन नरक से भी बदतर था पति और पत्नी जीवन साथी हैं और एक दुसरे के पूरक हैं इसलिये विधवा और विधुर के भावी जीवन की समस्या एक सी होनी चाहिये.
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पर उनकी अपनी सच्चाई, उम्र और विधवा होना, उन्हे सचेत भी कर जाता है और आशंका से भरी वे पूछती हैं कि क्यों मोती मियाँ गाँव में कुँवारी लड़कियों की कोई कमी है क्या जो राते गये तुम दिल्लगी करने यहाँ आ गये हो?
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नाच बैंड की धुन पर पगड़ी हवा में लहरा कर नचनियां का दुपट्टा अपने मुह पर ओढ़कर किसन चाचा भूल रहे हैं अपना अकेलापन बंसी भैया के जवान बहन की शादी सूखे से बंजर पड़ी जमीं जवान बुवा का विधवा होना टूटे खपरैल की मरम्मत सब दुःख पानी..