| 31. | सीधी बात यह है कि मृत्यु पर शोक करना या तेरहवीं और श्राद्ध करना विषाद को ही जन्म देता है।
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| 32. | जिसकी मुक्ति की संभावना ही नहीं, जो बार बार लौटता है, ऐसे आदमी के लिए शोक करना उचित है ।
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| 33. | पर्व के दिन रोना, दुःखी होना, शोक करना मानो पूरे वर्ष के लिए दुःख, शोक को बुलाना है।
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| 34. | इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥
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| 35. | यदि ऎसी स्थिति हम सब की है फिर जो छोड़ कर जा रहे हैं या जायेंगे उनके लिए क्या शोक करना ।
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| 36. | अतः देह के नाते-रिश्तों के चक्कर में पड़कर शोक करना और ये मेरा, ये तेरा का भेद करना सर्वथा अनुचित है |
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| 37. | किंतु आचार्य उमा स्वामी कहते है कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता व्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।
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| 38. | यह आत्मा अव्यक्त है, अचिन्त्य है और विकार रहित है| हे अर्जुन! इस आत्मा को इस प्रकार जानकर तेरा शोक करना उचित नहीं है|
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| 39. | साथ ही सुख और दुःख दोनों है, फिर शोक करना किस काम का? बुद्धि और इन्द्रियां ही समस्त कामनाओं और कर्मो की मूल है।
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| 40. | ये यदि वहाँ नहीं मरते तो यहाँ जेलों में सड़ते या निर्दोष जनता को सताते, उनके लिए शोक करना कहा तक उचित है?
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