स्वयं की उत्कृष्टता व योग्यता पर किसी प्रकार की श्लाघा व अहंकार करने के बजाय उसकी छोटी-मोटी कमियों पर स्वयं परिहास कर सकने व सहज मनोविनोद की स्वाभाविक क्षमता प्रतिभा की सबसे अनूठी कसौटी व पहचान है।
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सिद्धों द्वारा की गई श्रीरामचन्द्रजी के वचनों की श्लाघा को ही विश्कलित कर रहे महामुनि वाल्मीकि जी प्रश्न के उत्तर को सुनने की उनकी अभिलाषा और सभाप्रवेश आदिका वर्णन करने के लिए इस सर्ग का आरम्भ करते हैं।
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यदि धर्म, दर्शन,संस्कृति,सभ्यता,भाषा और वैचारिक उद्दातता के लिए भारत का अतीत और किसी सीमा तक वर्तमान यश का भागी है तो वैसा ही श्रेय और श्लाघा हमें उनकों भी देनीं चाहिये जो वर्तमान के नियन्ता बन प्रकट हुए हैं।
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अब आप मुझे बताएं के हमारे आज के लोकतंत्र में, जिसकी तारीफ़ करते हमारे जबड़े नहीं दुखते, नकली मुस्कराहट नहीं जाती, आत्म श्लाघा से हम कभी नहीं अघाते, और राजतंत्र में क्या फर्क है?
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उनके लिए उन को सशक्त करने के लिए तन मन धन लगा देना चाहिए.....नहीं के दूसरों की दोड को ब्रेक लगा के पुरे देस की दोड को निर्माल्यता और आत्मा श्लाघा की गर्त में धकेल देना चाहिए...
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अक्सर अपने ही लोंगों कहती हूँ (और कहती ही नही ये मेरे जीवन का, मेरी सोच का केन्द्र बिंदु भी है इसे आत्म श्लाघा ना समझें) कि मेरे लिए कोई क्या कहता है, इसकी कभी परवाह करती ही नही.
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एक वर्ष के उस हिमालय निवास में जो ऐसे अवसर आए, उनका उल्लेख करना यहाँ इसलिए उपयुक्त नहीं समझा कि अभी हम जीवित हैं और अपनी चरित्र निष्ठा की ऊँचाई का वर्णन करने में कोई आत्म-श्लाघा की गंध सूँघ सकता है।
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-खत्म करते-करते-सच में, मैं भी एक आत्म-मुग्ध साहित्य-अध्यवसायी हूँ एवं बहुत कुछ को (इस ब्लॉग री को भी) साहित्य-दृष्टि से देख सकने की आत्म-श्लाघा का शिकार मनुष्य ।
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यदि धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, भाषा और वैचारिक उद्दातता के लिए भारत का अतीत और किसी सीमा तक वर्तमान यश का भागी है तो वैसा ही श्रेय और श्लाघा हमें उनकों भी देनीं चाहिये जो वर्तमान के नियन्ता बन प्रकट हुए हैं।
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‘‘ मैं अनन्त काल तक तरंगों का आघात, वर्षा, पवन, धूप, धूल से तथा मनुष्यों के अपमान श्लाघा से बचने के लिए गिरि-गर्भ में छिपा पड़ा रहा, मूर्ति मेरी थी या मैं स्वयं मूर्ति था, यह सम्बन्ध व्यक्त नहीं था।