अब भैया! सारे लगे तो हैं पूरी ईमानदारी से सरकारी माल पर हाथ साफ करने, पर कम्बख्त माल खत्म ही न हो तो वे भी क्या करें।
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वे तो कंपनी का पैसा बचाना चाहते हैं और सरकारी माल जिसे बोलचाल में मुफ्त का माल कहा जाता है, का इस्तेमाल कंपनी के हित में करना चाहते हैं।
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न तो सरकारी माल को धोखाधड़ी करके खा जाओ और न ही नाजायज़ से तरीक़े से जनता के माल अपने हाकिमों तक पहुंचाओ कि उसमें से एक हिस्सा खुद खा जाओ।
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अगर आप का कोई १ ० रुपया मांगे तो देने में गुरेज है और जैसे हे सरकारी माल मिलता है मेल मुफ्त सभी को बेहद पसंद है, गलती किसकी है?
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मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि माल महाराज के आ मिर्जा खेले होली वाली कहावत बनाने वाले, अपना माल और सरकारी माल के बीच बड़ा लम्बा शोध किये होंगे।
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इसका मकसद था कि सत्ता के शीर्ष पर बैठकर सरकारी माल हड़पने के मनसूबे बनाने वालों को संदेश दिया जा सके कि जनता का धन चुराने वालों को कहीं पनाह नहीं मिलेगी।
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ऐसे में तत्कालीन कैबिनेट मंत्री ने सरकार की तरफ़ से पर्याप्त मात्रा में चावल की आपूर्ति का बयान देकर खाली मालगाड़ियाँ रवाना कर दी थीं और सरकारी माल पहुँचने से पहले ही कोलकाता के गोदामों से जमाखोरियों ने खाद्यान्न निकालना शुरू कर दिया था।
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कोई वेबसाईट बनाने के नाम पर, तो कोई फिचर के नाम पर, तो कोई पत्रिका निकाल कर, तो कोई अखबर निकाल कर, तो कोई स्मारिका निकाल कर, तो कोई पत्रकारों के संगठन के नाम पर सरकारी माल पर डांका डाल रहा है।
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खुद से ही घिन्न ना आने लग जाए तो कहना “ बीवी मेरी हाँ में हाँ मिलाती हुई बोली ” इन स्साले ठेकेदारों को बता दूँगा कि कैसे लूटा जाता है सरकारी माल “... ” हथकडियां ना लगवा दी तो कहना “ ” डण्डा!...
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तुलसीदास जी चंदन घिसते थे सिलबट्टे पर और श्री रामचंद्र तिलक लगाते थे साधुओं के मस्तक पर, पर आज के तुलसीराम चंदन घिसते हैं सरकारी माल का अथवा नोटों की गड्डियों का और उसका तिलक लगाते हैं स्वयं के माथे पर या किसी बहिन जी या भाईसाहब के चरणों में।