मैत्रेयी पुष्पा ने ज्योंही परंपरागत स्त्री और नई स्त्री की अस्मिताओं के बीच की जंग या अन्तर्विरोधों को चित्रित किया त्योंही वह एक नई सामाजिक अस्मिता के उदय की ओर भी संकेत छोड़ती हैं।
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निजी अस्मिताओं का सामाजिक अस्मिता में इस प्रकार विलय हो जाता है कि पाठक स्वयं को उस परंपरागत भारतीय समाज का हिस्सा अनुभव करने लगता है, जिसमें व्यक्ति-इकाई के लिए कोई स्वतंत्र जगह नहीं थी …
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यह संयोग नहीं है कि ईरान, जापान और चीन से लेकर स्वीडन, पौलेंड, फ्रांस और जर्मनी तक की फिल्मों में हमें जो स्त्रियां दिखाई दे रही हैं, उनके सामने निजी सुखों से अधिक सामाजिक अस्मिता की चुनौती ज्यादा है।
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प्रो. श्रीवास्तव का मानना था कि भारतीय भाषाओं की भिन्नता और सामाजिक अस्मिता के विभेद के बावजूद यह हमेशा अनुभव किया जाता रहा है कि अलग-अलग भाषाओं के बीच कड़ी के रूप में कोई भाषा अवश्य होनी चाहिए।
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क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था।
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क्योकि एक तरफ वह ग्राम स्वराज अर्थात परम्परागत हिन्दू ग्रामीण समाज के आत्मनिर्भर ढांचे को जिलाना चाहते थे पर उसके लिए बहुसंख्यक ग्रामीण समाज की आर्थिक और सामाजिक अस्मिता और नेतृत्वकारी शक्तियो को आगे बढाना उन्हे स्वीकार नहीं था।
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भविष्य में क्या हो सकता है राजनैतिक, प्रशासनिक और सामाजिक रूप से हांसिए पर पहुंच चुका गुर्जर समाज एक बार फिर से सामाजिक अस्मिता के नाम पर सडकों पर आ सकता है इस बात की पूरी उम्मीद की जा रही है।
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वस्तुतः प्रो० श्रीवास्तव ने हिंदी के प्रश्न को भारतीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रश्न से जोड़कर देखने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहते हैं, “हम अपनी सामाजिक अस्मिता को पहचानें, और इस संदर्भ में भाषाई अस्मिता के सवाल पर एक बार फिर गौ़र करें।
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यह संयोग नहीं है कि ईरान, जापान और चीन से लेकर स् वीडन, पौलेंड, फ्रांस और जर्मनी तक की फिल् मों में हमें जो स्त्रियां दिखाई दे रही हैं, उनके सामने निजी सुखों से अधिक सामाजिक अस्मिता की चुनौती ज् यादा है।
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प्रश्न उठता है कि क्या इन उच्च वर्गीय नगर वधुओं की तुलना आधुनिक विश्व सुंदरियों से नहीं की जा सकती? आखिर इनकी सामाजिक अस्मिता क्या थी? कहने का तात्पर्य मात्रइतना है कि भारतीय इतिहास के हर कालखण्ड में स्त्री पुरुषों की दासी बनी रही।