यह संयोग ही है कि होशंगाबाद के पिपरिया कस् बे के हमारे एक साथी नरेन् द्र ने-जो पिछले बीस-पच् चीस सालों से दिल् ली में हैं-दो चार दिन पहले ही अपना एक ब् लाग बनाया है सुमरनी, उस पर उन् होंने पिपरिया को कुछ इसी तरह याद किया है।
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धागा हूँ मैं वन्दना की प्रस्तुति ज़ख्म … जो फूलों ने दिये-पर धागा हूँ मैं मुझे माला बना प्रीत के मनके पिरो नेह की गाँठें लगा खुद को सुमरनी का मोती बना मेरे किनारों को स्वयं से मिला कुछ इस तरह धागे को माला बना अस्तित्व धागे का माला बने माला की सम्पूर्णता में
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ऋषिकेश में हिन्दू धर्म की भयंकर सेल लगी हुई है वो भी बम्पर छूट के साथ, हाथ में सुमरनी हो या न हो, दिल में आस्था हो या न हो अगर जेबा में मनी है तो सभी आश्रमों के दरवाजे आपके लिए खुले हैं, जिनके बाहर बैठे तमाम गरीब गुरबे दो जून की रोटी के चक्कर में मोक्ष के समीप होते जाते हैं।
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दे दूं कुछ और अभी जीवन भर का सुमिरन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी भक्ति-भाव अर्जन ले लो शक्ति-साध सर्जन ले लो अर्पित है अन्तर्तम अहं का विसर्जन लो जन्म लो-मरण ले लो स्वप्न-जागरण ले लो चिर संचित श्रम साधन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी यह नाम तुम्हारा हो धन-धाम तुम्हारा हो मात्र कर्म मेरे हों परिणाम तुम्हारा हो उंगलियां सुमरनी हों सांसे अनुकरनी हों शश्वत-स्वर आत्मसुमन देकर भी करता मन दे दूं कुछ और अभी