लोकगाथा गायक, गाथा गाने से पूर्व सुमिरनी गाते हैं-सुमिरि सारदा के पग ढरिए, गुस्र् अपने के चरण मनाय।
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साँस-साँस बन गई सुमिरनी, मृगछाला सब की सब धरिणी, क्या गंगा, कैसी वैतरिणी, भेद न कुछ कर पाई, दहाई बनी इकाई।
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पर नमिता कौन कहे नौमी नाम चल गया है उसका! सुमिरनी सुबह-सुबह ईँटों के चूल्हे पर खाना बनाती है ।
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प्रोपगंडा-प्रभु का प्रताप भी यदि आपकी सुमिरनी का ध् येय बन जाय तो आप भी बिना हर्रे-फिटकरी के अपना रंग चोखा बना सकते हैं।
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ये उससे ' दिदिया ' कहती है ।उसी के मुँह से इसका नाम सुना है नौमी ने ।आवाज़ लगाती है, ' सुमिरनी हो ' ।
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ये लोग न तिलक लगाते हैं, न कंठी पहनते हैं, साथ में एक सुमिरनी रखते हैं और ' सत्ताराम ' कहकर अभिवादन करते हैं।
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सत्ता के सतत् संघर्षण से जिनकी तशरीफें फूल गई हैं-जो शाम को इन्डिया इन्टरनैशनल सेन्टर में स्कॉच की चुस्कियों के साथ मुक्तिबोध की सुमिरनी फेरते रहते हैं।
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जुगाड़ के बाद अगर प्रेम चल निकले तो शर्त यह भी है कि सुमिरनी फेरने की तरह ही आपको रोजाना 108 बार देवी के महात्म्य का स्रोत पाठ करना होगा।
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सुमिरनी चूल्हे के आगे फैले अंगारों पर तवे से उतार कर रोटी डालती है फिर उसे खड़ी कर घये की आँच में घुमा घुमा कर दोनों ओर से सेंकती है और उछाल देती है ।
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कहाँ सुनने को मिलते हैं ऐसे मन में उतर जानेवाले दुर्लभ लोकगीत? और इतना तन्मय गायन! कोई वाद्ययंत्र नहीं, ढोल मँजीरा नहीं, एक घड़ा औंधा कर सुमिरनी का आदमी, चैतू ऐसी कुशलता से बजाता कि कानों में रस घुल जाता है ।