के मर्म का भेदन करे बाण सदृश आकाश वाणी से समस्त जन डरे देवकी के आठवे सुत रूप अन्त तव उदित होगा हन्त कष्टम् हे नष्टबुध्दी काल को वरना पडेगा ।
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रोने लगा विभीषण हो कर विषण्ण, ‘‘ हा! चला गया सेतु हन्त! नीतिवान नरों का चला गया धीर धर्म-धुरन्धर हन्त हा! बल चला गया बलधारियों का विश्व से,
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रोने लगा विभीषण हो कर विषण्ण, ‘‘ हा! चला गया सेतु हन्त! नीतिवान नरों का चला गया धीर धर्म-धुरन्धर हन्त हा! बल चला गया बलधारियों का विश्व से,
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रोने लगा विभीषण हो कर विषण्ण, ‘‘हा! चला गया सेतु हन्त! नीतिवान नरों का चला गया धीर धर्म-धुरन्धर हन्त हा! बल चला गया बलधारियों का विश्व से, गत हुआ जगत से वीरता का भाव है।
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रोने लगा विभीषण हो कर विषण्ण, ‘‘हा! चला गया सेतु हन्त! नीतिवान नरों का चला गया धीर धर्म-धुरन्धर हन्त हा! बल चला गया बलधारियों का विश्व से, गत हुआ जगत से वीरता का भाव है।
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मनुस्मृति जब जर्मनी में पहुँची तो वहॉं के विद्वानों ने इसका और जैमिनी के पूर्व मीमांसा दर्शन का अध्ययन करके कहा-हन्त! यदि ये ग्रन्थ हमें दो वर्ष पूर्व मिल गये होते तो हमें विधान बनाने में इतना श्रम न करना पड़ता।
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चनों के वारि से होकर सचेत, लगे करने विलाप यों-हन्त! वृन्त-विकसित कुसुम को काल ने काल से ही पूर्व कर डाला छिन्न-भिन्न है भग्न मनोरथ अब मग्न हुआ जाता हूँ ओक-लोक-शून्य महाशोक के समुद्र में जिस भांति करि-अपहृत कुवलय का मसृण मृणाल-तन्तु लय होता जल में।
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अपमान सह कर जीवित जो जग में जीवित नहीं है वह मनुज मृतक है, मान के समक्ष प्राण तुच्छ मान कर ही मानी मान-धन पर प्राण वार देते हैं, अतः ठेस लगने न दूँगा स्वाभिमान को।'' ‘‘बहिन की नाक काट, हन्त दाशरथी ने क्षात्र-धर्म-विपरीत किया नीच कर्म है।
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बन कर वामन मैं हो कर विवश ही आया द्वार आपके, मानता हूँ अपने को हतभाग्य विश्व में अपना अभीष्ट साधनार्थ, जो कि सर्वथा आप जैसे शिष्ट का भी चाहता अनिष्ट हूँ चाहता हूँ पूछना कि प्राण कहां आपके चाहता हूँ हन्त हा! दुरन्त अन्त आपका।
40.
लक्ष्मण के द्वारा उपहास करा उसका, राघव ने नाम ऊँचा किया रघु-कुल का! इतना ही नहीं उस पुरुष-ऋषभ ने श्रुति छू के और नाक पर रख अंगुली इंगित से, लक्ष्मण यती के कर-कंज से हन्त हा! कराई नाक-कान से रहित थी वह प्रेमाकुला कुल-शील-रूप-गर्विता, अंग-अंग जिसके अनंग की तरंग थी।