अकलंक ने उमास्वाति के ' तत्वार्थसूत्र ' तथा समन्तभद्र की ' आप्तमीमांसा ' पर क्रमश: ' तत्वर्थराजवार्तिक ' तथा ' अष्टशती ' नामक टीका लिखी है।
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इस मौंके पर तपोमति माता जी ने विधान महोत्सव पर विस्तार से प्रकाश डाला वहीं रात्रि में अकलंक पाठशाला की बहनों द्वारा नाटक का भी मंचन किया गया।
43.
जैन न्याय को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए अकलंक ने ' लघीयस्त्रय, ' न्यायविनिश्चय ', ' सिद्धिविनिश्चय ' तथा ' प्रमाण संग्रह ' की रचना की।
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संक्षेप में मेरी दृष्टि से यही मानना अधिक उपयुक्त है कि व्योमशिव किरणावलीकार से पूर्ववर्ती तथा मण्डन मिश्र और अकलंक से उत्तरवर्ती काल (700-900 ई.) में हुए।
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इस व्याख्या में कुमारिल भट्ट, प्रभाकर, धर्मकीर्ति, कादम्बरी, श्रीहर्षदेव, श्लोकवार्तिक, प्रमाणवार्तिक आदि का उल्लेख तथा मण्डन मिश्र और अकलंक के मत का खण्डन उपलब्ध होता है।
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इस प्रकार अकलंक ने जैन न्याय को एक व्यवस्थित रूप प्रदान किया है, जिसके कारण हम उन्हें उसी कोटि में प्रतिष्ठित करते हैं, जिसमें धर्मकीर्ति, कुमारिल, प्रभाकर आदि आते हैं।
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क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक? क्या समझते हो की होगे नष्ट तुम अकलंक? यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत! और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्त्रोत!!
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नैयायिकों ने छलादि का प्रयोग सही माना है, परन्तु अकलंक के अनुसार छल का प्रयोग उचित नहीं, क्योंकि छलादि से उत्पन्न जल्प, वितण्डा आदि के अस्तित्व में वे विश्वास नहीं करते।
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आचार्य समन्तभद्र, अकलंक, यशोविजय के सिवाय सिद्धसेन *, विद्यानंद * और हरिभद्र जैसे दार्शनिकों एवं तार्किकों ने भी स्याद्वाददर्शन और स्याद्वाद नयाय को जैन दर्शन और जैन न्याय प्रतिपादित किया है।
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वैशद्य को परिभाषित करते हुए अकलंक ने कहा है जो अनुमान से अधिक (नियत देश, काल तथा आकार के रूप में) विशेषों की प्रतिभासना करता है, उसे विशद ज्ञान कहते हैं।