डा उप्रेती ने कुमाउनी व्याकरण में अनुस्वर व दीर्घ अनुस्वरों की समुचित व्याख्या की है यथा गौंत ऊँ, ऊं,श्युंड़ो (अर्ध्चंद्र विन्दु) उद्धरण: चाँद, अर्धचन्द्र
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संस्कृत सिद्धांतो के अनुरूप ही उचित है, किन्तु देखा गया है कि गढ़वाळी व कुमाउनी साहित्य में अर्धचन्द्र व अनुस्वर विन्दु में कुछ विशेष सावधानी नही वरती जाती है.
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प्रमुख कुण्डों की आकृतियाँ निम्न प्रकार से है-चतुष्कोण, अर्धचन्द्र त्रिकोण, वृक्ष विषमषड्स्र, विषम आष्टास्र, पद्म, समषडस्र, सम अष्टास्र और, योनि कुण्ड ।
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क्रमशःचतुरस्र, योनि अर्धचन्द्र, त्र्यस्र, वर्तुल, षडस्र, पङ्कज और अष्टास्रकुण्ड की स्थापना सुचारु रूप से करे तथा मध्य में आचार्य कुण्ड वृत्ताकार अथवा चतुरस्र बनाये ।
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संस्कृत सिद्धांतो के अनुरूप ही उचित है, किन्तु देखा गया है कि गढ़वाळी व कुमाउनी साहित्य में अर्धचन्द्र व अनुस्वर विन्दु में कुछ विशेष सावधानी नही वरती जाती है.
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कुषाण काल में प्रभामण्डल के किनारे पर प्राय: अर्धचन्द्र या हस्तिनख की पंक्ति बनी रहती थी पर अब इस के साथ-साथ विकसित कमल, पत्रावली पुष्पलता आदि कई अभिप्राय बने रहते हैं
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आपको बस ये करना है कि आ के डंडे के बाद अर्धचन्द्र (ॅ) दबाने से पहले एक बार दायीं ऐरो की दबानी है फिर ॅ तथा ं चन्द्रबिन्दु में बदल जायेंगे।
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गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में शिव के परिचायक चिह्नहों में व्याघ्राम्बर (सं. सं. 54.376 4 ;) अर्धचन्द्र या बालेन्दु (सं. सं. 13.362) दिखाई देते हैं।
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१४. अँग्रेजी के जिन शब्दों में अर्ध विवृत “औ” ध्वनि का प्रयोग होता है उनके शुद्ध रूप का हिन्दी में प्रयोग अभीष्ट होने पर “आ” की मात्रा के ऊपर अर्धचन्द्र का प्रयोग किया जाए।
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कालगणना का यह क्रम अहंकार, बुद्धि, माया के पाँच कञ्चुक, माया शुद्धविद्या, ईश्वर, सदाशिव, बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद (नादान्त), शक्ति तक चलता रहता है।