लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की ज़मीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर ज़मीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहाँ अपनी जड़ें जमा पाते! देखने वाली बात है कि एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी-पली पुतुल का सिर्फ़ अपनी भाषा (संताली वांडमय, द्विभाषा नहीं) में अब तक एक भी कविता-संग्रह नहीं आया है।