विधि की यह स्थिति स्पष्ट हैं कि अधिनियम, 1988 की धारा 20 (1) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध अवधारणा खण्डनीय है तथा खण्डन का भार उतना गम्भीर नहीं होता जितना की अभियोजन पक्ष पर अपराध सिद्ध करने के सम्बन्ध में है, लेकिन न्यायिक विनिश्चय धनवन्तरी बनाम महाराष्ट राज्य ए. आई. आर. 1984एस. आपराधिक प्रकरण संख्या 72-ए/2005-36-राज्य विरूद्ध खिराजराम सी. पेज 575 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि अभियुक्त पर यह भार उतना हल्का भी नही है जितना की साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अवधारणा के सम्बन्ध में है।
42.
उम्मेद सिह एवं अन्य बनाम जय भगवान अग्रवाल एवं अन्य 2008 यू. ए. डी. 686 माननीय उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय तथा राम जी साहू एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेष स्टेट रोड ट्रॉसपोर्ट कारपोरषन व अन्य ए. आई. आर. 2009 (एन. ओ. सी) 1713 माननीय लखनऊ बैंच, जिसमे मृतक की उम्र 15 वर्श से कम थी, के नजीरो के आलोक मे मृतक की भावनात्मक आय; छवजपवदंस पदबवउमद्धरूपये 15,000-00 वार्शिक आंकी जायेगी जिसमे से एक तिहाई भाग, जो मृतक द्वारा स्वयं पर खर्च किया जाता, को कम करते हुये आश्रिता रूपये 10,000-00 प्रति वर्श होती है।
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विधि की यह स्थिति स्पष्ट हैं कि अधिनियम, 1988 की धारा 20 (1) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध अवधारणा खण्डनीय है तथा खण्डन का भार उतना गम्भीर नहीं होता जितना की अभियोजन पक्ष पर अपराध सिद्ध करने के सम्बन्ध में आपराधिक प्रकरण संख्या 39/2004 राज्य विरूद्ध शिवनारायण है, लेकिन न्यायिक विनिश्चय धनवन्तरी बनाम महाराष्ट राज्य ए. आई. आर. 1984 एससी. पेज 575 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि अभियुक्त पर यह भार उतना हल्का भी नही है जितना की साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अवधारणा के सम्बन्ध में है।