पहाड़ी मंदिर की घंटी की टुंगटुंग नहीं, जंगली अंधेरों में एक रेल गुजरती, आगे कुछ और सटपटाये सूबे होंगे उनमें निकलती होगी, वहीं कहीं बिजली और थोड़ी हवा बचाता सफेदी पर सियाह घिस रहा होऊंगा मैं, हारे अपने जतन जोड़ता, करीने से तह करके तुम्हारा नाम मोड़ता, किफ़ायत से कॉफ़ी बनाता दिन-दिन खींचकर हवाई चप्पल चलाता, सस्ते दूरबीन से दायें दुनिया देखता.