यह सोचकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आखिर गेहूँ को पीस कर आटा बनाना, गूँथना, तवे में सेंकना और फिर सीधी आँच में उसे फुला कर रोटी बनाना आखिर मनुष्य ने सीखा कैसे होगा? यही जानने के लिये जब मैंने नेट को खँगाला तो मुझे निम्न जानकारी मिलीः
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हिंदी साहित्यक संमेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी 1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिंदी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि 'उसे फारसी अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यह भाषा राष्ट्रभाषा हो सकेगी'।
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हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी-1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि ” उसे फारसी अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।
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अब की बार पारबती का मुँह गम्भीर हो गया, वह फिर सोचने लगी-देवहूती का ढंग था, वह चार लड़कियों को लेकर सदा खेला करती, किसी को सर गूंधना, किसी को बेलबूटे बनाना, किसी को गुड़िया बनाना सिखलाती-किसी को माला गूँथना, किसी को फूल के गहने बनाना, किसी को पोत पिरोना बतलाती।
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उसका सब-कुछ मुझे कविता-जैसा लग रहा था, उसका चोटियों में वेणी गूँथना, उसका मुसकराकर गंभीर हो जाना, उसका बात करने का ढंग कि जैसे कोई मालनिया हो वह, और सुई-धागा लिए बाग में घूमती-घूमती गूँथ रही हो सपनों के हार वह कहे जा रही थी, ' एक छोटा-सा घर होगा, उसमें केवल तीन कमरे होंगे।