“नींद की गोली” और एक खुफ़िया “एकालाप” दो कविताएँ नींद की गोली न जाने किस पदार्थ किस रसायन और किस विश्वास के साथ बनी है ये कि इसे खाने पर कुछ ही देर बाद सफ़ेद जलहीन बादलों की तरह झूटा दिलासा लिए तैरती आती है नींद लेकिन जारी रहता है दुनिया का सुनाई पड़ना आसपास होती हरक़तों का महसूस होना जारी रहता [...] पृथ्वी पर एक जगह दो कविताएँ
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आप बी. टी बैगन या सब्जियों का विरोध जरूर करें पर जो नकदी फसल हैं जिनका खाने में कोइ इस्तेमाल नहीं, जिससे बरार क्षेत्र (तटीय आंध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा हरयाणा पंजाब का मालव पत्ती) के जलहीन खेती क्षेत्र में और नुकसानदायक कीड़ो से आती पडी इस जमीन में मोंसंटो की इस तकनीक ने कितना उत्कृष्ट काम किया है, इसका अंदाजा लगाना उनके लिए मुश्किल है जो ये मान चुके है कि हर वक्त रोते रहना कला की एक मात्र तकनीक है, पर आपको नहीं.
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आज कोई नहीं कह सकता कि जैसलमेर का दुर्ग कुंवारा है, कोई नहीं कह सकता कि भाटियों ने कोई जौहर शाका नहीं किया, कोई नहीं कह सकता कि वहां की जलहीन भूमि बलिदानहीन है और कोई नहीं कह सकता कि उस पवित्र भूमि की अति पावन रज के स्पर्श से अपवित्र भी पवित्र नहीं हो जाते | जैसलमेर का दुर्ग आज भी स्वाभिमान से अपना मस्तक ऊपर किये हुए सन्देश कह रहा है | यदि किसी में सामर्थ्य हो तो सुन लो और समझ लो वहां जाकर |
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” एक लम्बी सांस लेता हूँ नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ ऊँगली के एक नाख़ून की फैंच बहुत ध्यान से देखता हूँ अब सोचता हूँ कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैं ने और सोचा भी वो तुम भी सोचते होगे अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है सपाट निंदा है जिसकी अनुभूति मात्र ही मुझे गहरे, निर्जन, जलहीन कुँए में फेंक देती है और मेरी आवाज़, शब्द उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है।