सच्चे दिल से प्यार करना कभी भी ग़लत नही हो सकता क्योंकि ये दो रूहों का मिलन होता है, जहाँ तक सवाल है लोगों के कहना का वोह तो कहते रहेंगे, उनका काम है कहना, मेरी शुभकामनाएँ फ़्रांसे के राष्ट्रपति के साथ है,
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इस लड़ाई का हश्र क्या होगा, यह अनुमान तो भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता ही लगा सकते हैं, लेकिन एक आम नागरिक का जहाँ तक सवाल है उसकी नजर में न तो श्री मोदी की प्रतिष्ठा बढ़ी है और न श्री अडवाणी की।
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अब जहाँ तक सवाल है इस चर्चा विशेष का तो, अभी तक हालाँकि मैंने वह पोस्ट पढ़ी नहीं है, जिसपर यह विषद चर्चा प्रस्तुत की गयी है, परन्तु प्रसंग के अंश को पढ़कर मुझे नहीं लगता कि इसमें इतने भड़कने वाली कोई बात है....
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‘चीजों को बदलने की बात मत करिए, उन्हें बदलिए' का जहाँ तक सवाल है तो फिर सभी अखबार, पत्रिकाएँ, किताबें, सेमिनार, गोष्ठी, वर्कशॉप, साहित्यकार, कवि, बे-ईमान ठहरे? एक राजशाही में जीते हुए, राजशाही के विरुद्ध और प्रजातंत्र की कल्पना पर बोलने-लिखने-पढ़ने वालों को हम आज यूंहीं सजदा नहीं करते हैं.
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और जहाँ तक सवाल है विमर्श के आधार का तो आप जो रोज़ सम्पादकीय पन्ने पर लम्बी चौड़ी भाषण झाडते हो, स्टूडियो में विशेषज्ञों को आमंत्रित कर समस्या का सुलाझान करते हैं तो कितनी प्रतिशत हल हो पा रही हैं आप के द्वारा विमर्श में उठाई गई कथित समस्या।
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और जहाँ तक सवाल है राष्ट्र विरोधी गतिविधियों का तो थोडा संशोधन करना चाहूँगा | दरअसल यह राष्ट्र विरोधी नहीं राज विरोधी गतिविधियाँ हैं | अभी देश में राष्ट्र का नहीं राजनैतिक सत्ताओं का विरोध हो रहा है | शायद इन्ही पर नज़र रखने का सरकारी प्रयास चल रहा हो |
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और जहाँ तक सवाल है सरकार का तो वो ज़माने गए जब राजा या यूँ कहें सामर्थ्य शाली और शक्ति शाली लोग आम लोंगों के हित के बारे में सोचते थे आज का राजा तो प्रजा के लिए नहीं, प्रजा के कन्धों पर चढ़ कर अपने लिए आसमान तलाशता है.
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जहाँ तक सवाल है गुर्जरों का नियमो के अंतर्गत नही आने का तो या तो नियमों को बदला जाए या फिर जो जातियाँ पहले से लाभ ले रही है उनकी फिर से उन्ही नियमो से तुलना की जाए यदि वो नियमो के अंतर्गत आती है तो ही उनका आरक्षण आगे बढ़ा जाए नही तो उनका आरक्षण ख़त्म कर दिया जाए.
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तमीज सिखने का जहाँ तक सवाल है उसपे तो दिल्ली वाले बैकफूट पर हैं लेकिन साथ ही अधिकांश लोगों को ये भी लगता है कि सरकार को उनकी फ़िक्र नहीं है बल्कि बाहर से आने वाले मेहमानों की फिकर है वरना अगर पहले से ही सुविधाए बढाई गयी होती तो फिर तमीज यहाँ के लोगों की आदत में शुमार हो चुका होता।
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जहाँ तक सवाल है की सिर्फ भगत सिंह ही क्यों? बटुकेश्वर दत्त क्यों नहीं? राज गुरु क्यों नहीं? सुखदेव क्यों नहीं? अशफाक उल्लाह खान क्यों नहीं, राम प्रसाद बिस्मिल क्यों नहीं, ठाकुर रोशन सिंह क्यों नहीं, खुदीराम बोस क्यों नहीं? सत्येन बोस क्यों नहीं? मै आपकी इस सवाल का सम्मान करता हू.