शत गुन गंधक का जारण, क्रमण,खरल,पुट तथा बिडों आदि के द्वारा उनके अनु,रेनू,परमाणु को भेद कर सुक्षमातिसुक्ष्मा करना.यदि हम इस जानकारी को ध्यान में रखकर क्रिया करेंगे तो हमें सफल होना ही है.और इस ज्ञान को आत्मसात कर अपनी लाइफ को हैल्थ और वेअल्थ से भर लेना है.पारद संस्कार आदि नेक्स्ट लेख में.........****
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उन्होंने कहा की सदगुरुदेव ने इस रहस्य को समझते हुए कहा था की “पूर्ण संस्कार युक्त पारद से जिसमे समस्त रत्नों का जारण और चारण किया गया हो, दिव्य ओषधियों तथा सिद्धौश्धियों से जिसका मर्दन किया गया हो ऐसे पारद से अद्भुत संयोगो में पूर्ण शिव स्थापन तथा पूर्ण लक्ष्मी स्थापन क्रिया संपन्न कर रसेश्वर का निर्माण किया जाये तथा उस शिवलिंग में सप्त तत्वों “भू,भुवः,स्वः,मह,जनः, तपः, सत्यम” का स्थापन कर यदि त्रिनेत्र मंत्र का जप किया जाये तो निश्चय ही प्राण चक्षु जाग्रत हो जाते हैं.
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यदि साधक सिद्ध गंधक, पारद, या अन्य दिव्व्य कल्पों का एक निश्चित समय तक भक्चन करता है तो इन सिद्ध रासो में व्याप्त गंधक का शर्रेस्थ पारद से योग होता है और शरीर के भीतर के तापमान से उस पारद पर गंधक की जारना होती जाती है और एक निश्चित समय के बाद वो पारद पूर्ण वेधन छमता से युक्त हो जाता है और वैसे भी हमारे शरीर के तापमान के कारण शरीस्थ पारद कभी भी तेज या वेध विहीन नही हो पता, जरूरत रहती है सीरक गंधक के योग और जारण की.
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अरे नीचे एक कच्छप होता है, उसके ऊपर सुमेरु आकर में यन्त्र जो उस कच्छप की पीठ पर अवस्थित होता है.और उस सुमेरु के सर्वोच्च बिन्दु में ऐश्वर्यदात्री लक्ष्मी अवस्थित हैं.रस तंत्र में कच्छप यन्त्र का बहुत महत्व पूर्ण स्थान है,जिसके द्वारा शिव वीर्य की शक्ति राज से क्रिया करी जाती है मतलब गंधक जारण कराया जाता है और तब पारद रसेन्द्र पथ पर अग्रसर होता है.इसी क्रम में दिव्या वनस्पतियों या सिद्ध तत्वों से क्रिया कराकर पारद को सिद्ध सुता और स्वर्ण में परिवर्तित किया जाता है और यह सब होता है इसी कच्छप श्रीयंत्र में.