जिस तरह से हम इस नए प्राणी की संवेदनाओं को साझा कर पाते हैं वह महान होता हैः ठीक ग्रेगोर की ही तरह हम पाते हैं कि हमारी पीठ जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है और हमारी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे हैं।
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जिस तरह से हम इस नए प्राणी की संवेदनाओं को साझा कर पाते हैं वह महान होता हैः ठीक ग्रेगोर की ही तरह हम पाते हैं कि हमारी पीठ जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है और हमारी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे हैं।
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जिस तरह से हम इस नए प्राणी की संवेदनाओं को साझा कर पाते हैं वह महान होता हैः ठीक ग्रेगोर की ही तरह हम पाते हैं कि हमारी पीठ जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है और हमारी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे हैं।
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शाम को ग्रेगोर साम्सा एक सामान्य ट्रैवलिंग सेल्समैन होता है ; उस रात उसे खराब सपने आते हैं ; अगली सुबह-जाड़ों की सुबह जो उतनी ही ठण्डी थी जितनी वह रात जब काफ़्का लिख रहा था-वह पाता है कि उसकी पीठ किसी जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, उसका पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है, और उसकी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे होते हैं।
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शाम को ग्रेगोर साम्सा एक सामान्य ट्रैवलिंग सेल्समैन होता है ; उस रात उसे खराब सपने आते हैं ; अगली सुबह-जाड़ों की सुबह जो उतनी ही ठण्डी थी जितनी वह रात जब काफ़्का लिख रहा था-वह पाता है कि उसकी पीठ किसी जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, उसका पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है, और उसकी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे होते हैं।
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शाम को ग्रेगोर साम्सा एक सामान्य ट्रैवलिंग सेल्समैन होता है ; उस रात उसे खराब सपने आते हैं ; अगली सुबह-जाड़ों की सुबह जो उतनी ही ठण्डी थी जितनी वह रात जब काफ़्का लिख रहा था-वह पाता है कि उसकी पीठ किसी जिरहबख्तर जैसी सख्त हो गई है, उसका पेट मुड़ा हुआ, भूरा और ऊंचा नीचा हो गया है, और उसकी आंखों के सामने असंख्य छोटे छोटे दयनीय पैर दर्दनाक उत्तेजना में हिल रहे होते हैं।
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सुबह सवेरे एक बनावटी मुस्कान पहने निकलती है घर से बार-बार मुखौटे बदलते थक जाती है कृत्रिम हंसी, खुश्क आंखें और खोखले मन आतंकित करते हैं तब भी विशिष्टों में नहीं रच पच पाती थकी हुई वापस लौटती है अपनी दुनिया में जहां राह देख रहे हैं जाने कब से भूखे बच्चे, बिखरा घर, उलझी आलमारी दूध राशन सब्जी की खरीदारी करती युद्धरत औरत डांट डपटकर सुला देती है बच्चों को पड़ जाती है निढाल बिस्तर पर ताकि कल फिर जिरहबख्तर के साथ निकल सके घर से।
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दिसंबर १ ६६ ९ के अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २ ० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया, जाटों ने मुग़ल सेना पर एक दृढ़ निश्चय और भयंकर क्रोध से आक्रमण किया, सुबह से शाम तक युद्ध होता रहा, कोई निर्णय नहीं हो सका l दूसरे दिन फ़िर घमासान छिड़ गया, जाट अलौकिक वीरता के साथ युद्ध कर रहे थे, मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं के होते हूए भी गोकुलसिंह पर विजय प्राप्त न कर सके l