अब पिछले आठ-नौ महीने से रंगों का शहर कहलाने वाले पाली में फिर से हैं, लेकिन लगता है कि जि़दगी की दीवारों से शनै:-शनै: सारे रंग उड़ रहे हैं।
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उनकी कल्पना विकसित हो रही है और परिणामस्वरूप जो कुछ भी वे असल जि़दगी में देखते / सुनते हैं, वह डरावनी मानसिक छवियों का रूप ले सकता है।
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जि़दगी की रेलगाड़ी जाने किस प्लेटफाॅर्म पर ठहरी है कि गरीबी की सोहबत में पले बढ़े आदमी को ओबेराय होटल के सुईट न॰ 234 पर कहानी लिखने को मिला है।
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अब हमारे मासूम बच्चे और परिवार के लोगों के लिए सर छुपाने के लिए कोर्इ आसरा नहीं है और हम अपनी ही ज़मीन पर श्रर्णाथियों की तरह जि़दगी गुज़ारने पर मजबूर है।
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जि़दगी की कड़वी सच्चाई को चार पंक्तियों में ग़मग़ीन कुरैशी इस तरह बयान करते हैं, ‘ पीना पड़ा ये सोच के ज़हर-ए-जुदाई को, सुनता है कौन टूटे दिलों की दुहाई को।
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और जब पैसे और स् टेट्स को ही जि़दगी में सफलता का पैमाना मान लिया जाता हो तो नैतिकता, विश् वास और रिश् ते जैसे शब् द बहुत बेमानी हो जाते हैं.
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क्यों देखूं जबकि मुझे पता है कि न देखने की क़सम मैंने ही खाई है, और क्यों फिर जाऊं अपनी क़सम से जबकि मुझे पता है कि इससे मेरी जि़दगी में कितना आराम आया है।
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मगर यही शब्द कभी कभार जड़ता का रूप लेकर इंसानी जि़दगी में सड़ांध पैदा करने लगते हैं और इन शब्दों की आवाज़ तब इतनी बदबूदार हो जाती है कि इंसान अपने कान सिकोड़ने लगता है।
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मगर यही शब्द कभी कभार जड़ता का रूप लेकर इंसानी जि़दगी में सड़ांध पैदा करने लगते हैं और इन शब्दों की आवाज़ तब इतनी बदबूदार हो जाती है कि इंसान अपने कान सिकोड़ने लगता है।
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इसे ‘ नया ज्ञानोदय ' और ‘ वागर्थ ' यहाँ तक कि सेमी-साहित्यिक पत्रिका ‘ अहा जि़दगी ' से सीख लेनी चाहिए जिनका हर नया अँक पिछले अंक की परछाईं से मुक्त रहता है. शशांक दुबे