इसी ऊहापोह को व्यक्त करती रघुबीर जी की ‘ आज का पाठ है ' कविता की ये पंक्तियाँ देखिए,-‘ जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों / पढ़े-लिखे जीवित लोग / एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए / तब / आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को / मसखरी कितनी पसन्द है ' ।
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[English] राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संस्थान के कार्यालय के भीतर शुक्रवार २ ० मई २ ० ११ से अनेक एच. आई. वी. के साथ जीवित लोग धरना दे रहे हैं क्योंकि बिहार और उत्तर प्रदेश के एंटी-रेट्रो-वाईरल (ए. आर. टी) केन्द्रों पर एड्स दवा आपूर्ति प्रणाली खंडित चल रही थी और दवाएं नियमित तौर पर उपलब्ध नहीं थीं.
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“ वहां जहां जीवित लोग काम करते हैं मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियां और वे उसे उठा कर पास पास हो लेते हैं एक दूसरे की ओर चेहरा करके देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गये चेहरे आज आखिरी बार देख रहे हों ”
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होना तो यह चाहिए था कि इस स्कूल के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर ऐसा भव्य और व्यापक समारोह मनाया जाता जिसमें पूरा कस्बा शामिल होता-विशेषतः वे तमाम जीवित लोग अपने परिवार सहित शामिल होते जो यहाँ पढ़े हैं, इस स्कूल की ऐतिहासिकता के बारे में, स्वाधीनता संग्राम में इसकी साक्ष्य के बारे में, नगर विकास में इसकी भूमिका के बारे में विस्तार से वर्तमान पीढ़ी को बताया जाता।
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क्योंकि रहस्यवादी कवि कहते हैं कि फूलों को एहसास होता है वे कहते हैं कि पत्थरों में आत्मा होती है और नदियों को चाँदनी में उद्दाम प्रसन्नता होती है लेकिन फूलों को एहसास होने लगे तो वे फूल नहीं रह जायेंगे-वे लोग हो जायेंगे और अगर पत्थरों के पास आत्मा होती तो वे जीवित लोग होते, पत्थर नहीं, और अगर नदियों को होती उद्दाम प्रसन्नता चाँदनी में तो वे बीमार लोगों जैसी होतीं
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यही कि आज जो खाविंद लगा हुआ है, कल महबूब बन जाए.कल जो महबूब बने,परसों वह खुदा बन जाए.रिश्ता जो सिर्फ रस्म के सहारे खडा रहता है,चलते चलते दिल के सहारे खडा हो जाए...आत्मा के सहारे......” कहानी (* मलिका से) कुछ उदासियों की कब्रें होतीं हैं,जिनमे मरे हुए नहीं जीवित लोग रहते हैं..अर्थों का कोई खड्का नहीं होता है.वे पेडों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं.और चुपचाप झड़ जाते हैं...
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उत्तराखंड की सद्द्जनित प्राकृत आपदा के दो हफ्ते बाद भूंखे-प्यासे, डरे-सहमे, और बचे-खुचे जीवित लोग जब अपनी घोर ह्रदय विदारक आपबीती सूना रहे हों, जब इस खंड-प्रलय जैसे कुदरती कहर में मारे गए लगभग 1 0 हजार मानवों की दारुण व्यथा, देश और दुनिया को मीडिया के मार्फ़त दिखाई जा रही हो, तो समाज और देश को क्या करना चाहिए? क्या जीवित लोटे बंधू-बांधवों को बधाई और दिवंगतों को शोक संवेदना व्यक्त कर देना ही कर्तब्य परायणता है?