बोले-“ सच? मुझे गाँव के लोग बहुत पसन्द हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती होंगी? ” चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टिकटिकी बांधे देखने लगे।
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सोकर उठने के बाद पहला सवाल होता है, “ ह्वेयर इज़ माइ रैटल? ” रैटल की रट तब तक जारी रहती है जब तक प्लास्टिक की दो गेंदों वाली टिकटिकी उसे वापस न मिल जा ए.
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उलझी हुई थी जब रसोई सेंकने में रोटियाँ सिगरेट के कश ही ले रही थी बैठकी औंधी पड़ी वाह! वाह!! वाह!!! ये इस्तिआरे, ये लक़ब, ये पेशकश, ये बानगी हैरान हो देखा किये, बस बाँध कर हम टिकटिकी
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उस रात बहुत सन्नाटा था उस रात बहुत खामोशी थी साया था कोई ना सरगोशी आहट थी ना जुम्बिश थी कोई आँख देर तलक उस रात मगर बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
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घंटो बैठ के लोग प्रतीक्षा करते और टिकटिकी लगाते उन में आप विक्षेप करते तो बहोत पाप होता … नेता के या और भाषणों में ऐसा चलता, लेकिन सत्संग में नहीं चलता … सत्संग में आते तो एक एक कदम चलकर आते तो एक एक यज्ञ करने का पुण्य होता..
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गंगा बाबु की माताजी और अनारो देवी जैसे ही दरवाज़े पर पहुंची तो अपने समक्ष ऐसा हृदयविदारक दृश्य देख वहीँ स्थिर हो गए | माताजी के प्राण सूख गए | एकटक टिकटिकी बांधे वो अपने प्रिये को निहारती रहीं | खामोश अश्रुपूरित नयन, गंगा बाबु से सवाल कर रहे थे,
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वो मेरा गाँव ……>>>> गार्गी की कलम से अब लगता है वो स्वर्ग था शायद वह सुख अब नामुमकिन हो गया ना अब बैलों के गले में बंधी घंटियाँ सुनाई देती हैं ना बैलगाड़ियों कि चरमराहट ना सुबह माँ की चकिया की आवाज ना वो शाम को गाय बकरियों की आवाज ना वो टिकटिकी की आवाज
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ये हिंदुस्तान एक कांग्रेस नामक मार्केटिंग कंपनी के हाथो है, जहाँ सब कुछ है गाँधी की फोटो लगा कर, ईमानदारी का ढोंग, त्याग की देवी, आतंकवाद के शिकार जनपथ परिवार, घर से बहार निकाली गई छोटी बहु, विरोधियो के हाथ में उसका बेटा, विदेशी और मासूम युवराज, गरीब देश की जनता जो जनपथ परिवार पर टिकटिकी लगाय देख रही है.